Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1978
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 260
________________ दढ़द मन् किसी अच्छे धर्म में दीक्षित होने के लिए विकास है तथा इसने उतरवर्ती धर्म-परीक्षा सम्बन्धी पहले अपनी कुलदेवी की आराधना करता है। साहित्य को कितना प्रभावित किया है ? कुलदेवी प्रगट होकर उसे एक पट्ट में धर्म का धर्म-परीक्षा के इस प्रसंग को इतने विस्तृत रूप स्वरूप लिखकर देती है । राजा उस धर्म के स्वरूप __ में प्रस्तुत करने वाले उद्योतनसूरि पहले प्राचार्य की जांच करने के लिए नगर के सभी धार्मिक हैं। उनके पूर्व तथा बाद में भी इतने धार्मिक मतों प्राचार्यों को आमन्त्रित करता है । 33 आचार्य का एक साथ मूल्यांकन किसी एक ग्रन्थ में नहीं वहां एकत्र होते हैं । वे अपने-अपने धर्म का स्वरूप किया गया है । यद्यपि इस दृष्टिकोण को लेकर कहते हैं । राजा प्रत्येक के धर्म को सुनकर उसकी कई कथाएं भारतीय साहित्य में उपलब्ध हैं । 'एक अच्छाई-बुराई की समीक्षा करता जाता है । अन्त की तुलना में दूसरे को श्रेष्ठ बताना' यह धर्मपरीक्षा में अर्हत् धर्म के स्वरूप को सुनकर उसे सन्तोष की मूल भावना है, जिसका अस्तित्व रचनात्मक होता है। क्योंकि कुलदेवी ने भी वही धर्म उसे लिख और लोक-साहित्य दोनों में प्राचीन युग से पाया कर दिया था तथा मुक्ति प्राप्ति का यही धर्म उसे जाता है। टोक लगता है । __ वैदिक युग के साहित्य में कथानों के स्थान पर इस धर्म-परीक्षा के प्रसंग में कई बातें विचार- देवताओं का वर्णन अधिक उपलब्ध है। उसमें हम णीय हैं । पाठवीं शताब्दी में इतने मत-मतान्तर पाते हैं कि कभी इन्द्र श्रेष्ठ होता है तो कभी धर्म और दर्शन के क्षेत्र में विद्यमान थे, जिनका विष्ण । कभी वरुण को प्रधानता मिलती है तो उल्लेख कुवलयमाला में हुआ है। इन 33 प्राचार्यों कभी रुद्र को। यह इसलिए हुआ है कि जब इन की विचारधारानों के आधार पर कहा जा सकता देवतानों की विशेषताओं को तुलना की दृष्टि से है कि उनमें से अद्वंतवादी, सहूँ तवादी, कापालिक, देखा गया तो जिसके गुण तत्कालीन मानव को प्रात्मबधिक, पर्वतपतनक, गुग्गुलधारक, पार्थिद- अधिक उपयोगी लगे उसे प्रधानता दे दी गयी। पजक, कारुणिक एवं दुष्ट-जीव संहारक ये नौ यह एक प्रकार की धर्मपरीक्षा के स्थान पर गुणशैवमत को मानने वाले थे। एकात्मवादी, पशुयज्ञ- परीक्षा थी, जिसने प्रागे चलकर विकास किया है। समर्थक, अग्निहोत्रवादी, वानप्रस्थ, वर्णवादी एवं जातक साहित्य में भी परीक्षा सम्बन्धी अनेक ध्यानवादी ये छह वैदिक धर्म के प्राचार्य थे । दान- कथाए हैं । कहीं सत् की परीक्षा की जाती है तो वादी, प्रतधार्मिक, मूर्तिपूजक, विनयवादी, पुरोहित, कहीं शुद्धता की, कहीं ईमानदारी की तो कहीं गुणों ईश्वरवादी तथा तीर्थ-वन्दना के समर्थक ये सात की। गुणों की परीक्षा ही वास्तव में धर्म-परीक्षा पौराणिक धर्म का प्रचार करने वाले थे। इनके का प्राधार है। राजोवाद जातक गूण-परीक्षा का अतिरिक्त बौद्ध, चार्वाक, सांख्य, योग-दर्शन के श्रेष्ठ उदाहरण है, जिसमें दो राजाओं के गुणों प्राचार्य थे। कुछ स्वतन्त्र विचारक थे । यथा- की परीक्षा उनके सारथी करते हैं । दोनों राजा प्राजीवक सम्प्रदाय के पंडरभिक्षुक एवं नियतवादी, बल, प्रायु सौन्दर्य एवं वैभव सम्मान हैं, किन्तु भागवत सम्प्रदाय के चित्रशिखण्डी, अज्ञानवादी एवं उनके गुणों में थोड़ा-सा अन्तर है । एक राजा मद-परम्परावादी । इन सभी प्राचार्यों के मतों की शठता को जीतता है। जैसे के साथ तैसा तुलनात्मक समीक्षा यहां अपेक्षित नहीं है । किन्तु व्यवहार । जबकि दूसरा राजा बुराई को भलाई से यह विचारणीय है कि कुव० का यह धर्म-परीक्षा जीतता है । यह कथा धर्म-परीक्षा के ठीक अनुरूप का विवरण लोक-मानस की किस मूल भावना का बैठती है । दो आचार्य धर्म की श्रेष्ठता की परीक्षा 2-146 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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