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भूमि पर खड़े हैं किंतु उन्होंने दूसरों के जैनत्व निर्वाह कर अपने को विष्णकुमार की श्रेणी में कानिरर्णय करना शुरू कर दिया है । स्वयं तो मान रहे हैं । वती वेष की घोषणा कर असदाचारी एवं अनैतिक जीवन यापन कर रहें हैं किन्तु व्रत विहीन सदा- एक महाश्रमरण यशोधर थे, जिन्होंने श्रेणिक चारियों पर छीटा कसी करने पर तुले हैं । द्वारा डाले गये मृत सर्प की प्रतीव वेदना के बाद इस प्रकार प्राणी मात्र के प्रात्म कल्याण की परिषह समाप्ति पर करुणा भाव से 'धर्म वद्धि' घोषणा करने वाले महावीर के वंशानवंशी कधित मंगल संदेश दिया था। दूसरी ओर वर्तमान के अनुयायी संकीर्णता, क्षुद्रता, विग्रह, मोह, लोभ, कतिपय साधु संघ हैं जो विद्धमान' तीन परमेष्ठियों असमानता, एकान्तवाद परतंत्रता एवं शोषकवृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, इन्होने अध्यात्म धारा के प्रतीक बन कर अपनी इन विराधक प्रवृत्तियों में प्रवाहित महावीर के आदर्शों को पठन, मनन, पर महावीर का लेबिल चिपका रहे हैं और एवं चिन्तन में निमग्न जैन-जनेत्तर के विशाल उन्मादी गज के समान व्यवहार कर रहे हैं। समूह को बिना प्रत्यक्ष में जाने पहिचाने 'बहिष्कार' कितना अचम्भा है । 'जल में लागी प्राग' की जैसे कलुषित पादेश बारण से मर्माहत किया है। कहावत चरितार्थ हो रही है।
स्वयं तो दिगंबर-श्वेतांबर, स्थानकवासी, महावीर ने अपने सन्वयात्मक दृष्टि से ।
र तेरहपंथी बीसंपंथी के भेद तथा पद्मावती, क्षेत्रपाल विविध दर्शनों में खोये यात्म स्वरूप को उसकी
आदि की मान्यता जैसी स्थूल क्षुद्रताओं एवं
कुमान्यताओं से ऊपर नहीं उठ सके किन्तु जिन्होंने समग्रता सहित प्राप्त एवं व्यक्त किया था ।
अपना परम्परागत पेत्रिक धर्म एवं विश्वास छो! विश्व व्यवस्था का सम्यक् स्वरूप स्पष्ट किया और आत्मा की स्वतंत्र सत्ता एवं स्वशक्ति की
कर महावीर के शासन को अपनाया और
विकल्पातौर आत्मा को जानने पहिचानने में रस, सार्वभौमिकता को प्रकट कर स्वयं सार्वभौम प्रात्मस्वरूप में निमग्न हो गये । किंतु अब
को अजैनत्व का प्रमाण-पत्र देने लने । आत्मस्वरूप
की चर्चा सुनते ही जिनके नाक भौह सिकुड़ने महावीर के कथित अनुयायियों द्वारा उनके सर्वकालिक एवं सर्व सदुपयोगी क्रांतिकारी
लगते हैं वे अध्यात्म की तत्व चर्चा में व्यस्त जन प्रादर्शों को धूमिल करने का षड्यंत्र किया जा
समूह के जैनत्व पर संदेह करने लगे। मिथ्यात्व एवं ब रह कषायों के अभाव के पद का अभिमान
करने वाले कथित आत्मसाधक तीव्रद्वेष की अग्नि विकल्पों के द्वद एवं लोकेषणा के जाल में में झुलस रहे हैं । स्थूल क्षुदता, आत्मा के प्रति फंसा गृहस्थ यह सब कुछ करता तब भी ठीक
विरक्ति एवं तीव्र कषामों की यह नमूना ही क्या था। किंतु स्थिति तो यह कि कथित विकल्पतीत
इन त्रिपरमेष्ठियों के त्याग तपस्या का प्रतिफल प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करने में निमग्न साधूगरण
है ? क्या यही उनकी समग्र अजित पूजी है ? भी इस द्वंद में यौद्धा बन कर कूद गये हैं । उन्होंने
और क्या यही सच्चा नमूना महावीर की वीतरागी भी जैन, अजैन, निश्चय-व्यवहार एवं पूज्यत्व
श्रमण संस्कृति का है ? क्या यही श्रमण एवं अपूज्यत्व के विकल्पों की रण नीति बनाकर वाक
श्रावक परम्परा रही है । यह इतिहास मौन है कलम बारण छोड़ना शुरु कर दिया है और साधु
किन्तु विद्वान श्रमण ऐसे नवीन इतिहास का धेष में ही महामुनि विष्णकुमार को छन भूमिका
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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