Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1978
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 236
________________ 'सनम तिपद सनमतिकरण, बन्दौं मंगलकार । कवि ने अपने को दीन, अनाथ और अवगुणों बरनै बुधजन सतसई, निजपरहितकरतार ॥' का धाम माना है तथा अपने को बालक, वानर की कोटि में रखते हुए अपने दीनानाथ तारनतरन अपने इस ग्रन्थ को कवि ने देवानुरागशतक, प्राराध्य से भवसागर से तार लेने की बार-बार सुभाषित नीति, उपदेशाधिकार, विराग भावना विनती की है । भक्त कवि सूरदास के 'मेरे अौगुन और कवि प्रशस्ति नामक प्रकरणों में विभाजित चित्त न धरौ' पद की भांति ही बुधजन ने भी किया है। देवानु गिशतक में जैसा नाम से ही अपने आराध्य से मांग की हैस्पष्ट है देवभक्ति के 100 दोहे हैं। सुभाषित नीति अधिकार में नीति सम्बन्धी 200 दोहे हैं। मेरे प्रोगन जिन गिनौ, मैं अौगुनको धाम । उपदेशाधिकार में भी 122 दोहे तो नीति सुभा- पतित उधारक पाप हो, करौ पतित को काम ।। षित हैं शेष में से 15 विद्याप्रशंसा में, 14 मित्रता और संगति पर, 8 जुमा निषेध पर, 6 मांस और शिकायत की हैनिषेध पर, 6 मद्य निषेध पर, 6 वेश्या निषेध पर, सुनी नहीं अजौं कहूँ, बिपति रही है धेर । 6 शिकार की निन्दा में, 7 चोरी निन्दा में और औरनि के कारज सरे, ढील कहा मो बेर ।। 9 परस्त्रीसंग निषेध पर रचित हैं । विरागभावना में वैराग्य जागृत करने वाले 195 दोहे हैं और फिर अपने देव की कठिनाई को समझते हुए अन्त के सात दोहों में कवि ने अपनी प्रशस्ति कवि विनती करता हैलिखी है। हारि गये हो नाथ तुम, अधम अनेक उधारि । देवानुरागशतक में कवि अपने प्राराध्य का धीरे धीरै सहज मैं, लीजै मोहि उवारि ।। गुणगान करते हुए नहीं अघाया है और यह याचना करता हैतुम अनंतगुन मुखथकी, कैसे गाये जात । और नाहिं जाचू प्रभू, ये वर दीन मोहि । ईद मुनिद फनिंद हू, गान करत थकि जात ।। जौलौं सिव पहुंचू नहीं, तौलौँ सेऊ तोहि ॥ तुम अनंत महिमा अतुल, यौं मुख करहूं गान । सागर जल पीत न बनें, पीजे तृषा समान ।। ___ यद्यपि कवि ने अपने इष्ट देव का नामोल्लेख नहीं किया, किन्तु उनका जो गुणगान किया है आनंदधन तुम निरखिक, हरषत है मन मोर । उससे स्पष्ट है कि वे जिनेन्द्र के उपासक थे । दूर भयौ प्राताप सब, सुनिकै मुखकी धोर ॥ वीतराग जिनेन्द्र के प्रति यह दास्य भक्ति यद्यपि कुछ विचित्र सी लगती है, किन्तु उनकी यह प्रान थान अब ना रुचं, मन राच्यौ तुम नाथ । विनती-याचना तुलसी की विनयपत्रिका, सुर के रतन चिंतामनि पायकै, गहै काच को हाथ ।। विनय पद तथा अन्य पूर्ववती एव समकालीन भक्त जैसे भानु प्रतापते, तम नासै सब ओर। कवियों द्वारा अपने आराध्य के प्रति किये गये तैसे तुम्म निरखत नस्यौ, संशयविभ्रम मोर ॥ भक्तिगानों की श्रृंखला में की गई भावाभि व्यक्ति है। धन्य नैन तुम दरम लखि, धनि मस्तक लखि पाय । श्रवन धन्य वानी सुनै, रसना धनि गुन गाय ॥ सुभाषित खण्ड और उपदेशाधिकार प्रकरण 2-122 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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