Book Title: Mahabharat Samhita Part 03
Author(s): Bhandarkar Oriental Research Institute
Publisher: Bhandarkar Oriental Research Institute

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Page 828
________________ 12. 327. 74] महाभारते [ 12. 327.99 ततस्त्रेतायुगं नाम त्रयी यत्र भविष्यति / एवमुक्त्वा हयशिरास्तत्रैवान्तरधीयत / प्रोक्षिता यत्र पशवो वधं प्राप्स्यन्ति वै मखे। तेनानुशिष्टो ब्रह्मापि स्वं लोकमचिराद्गतः // 86 तत्र पादचतुर्थो वै धर्मस्य न भविष्यति // 74 एवमेष महाभागः पद्मनाभः सनातनः / ततो वै द्वापरं नाम मिश्रः कालो भविष्यति / यज्ञेष्वग्रहरः प्रोक्तो यज्ञधारी च नित्यदा // 87 द्विपादहीनो धर्मश्च युगे तस्मिन्भविष्यति // 75 निवृत्तिं चास्थितो धर्म गतिमक्षयधर्मिणाम् / ततस्तिष्येऽथ संप्राप्ते युगे कलिपुरस्कृते। प्रवृत्तिधर्मान्विदधे कृत्वा लोकस्य चित्रताम् // 88 एकपादस्थितो धर्मो यत्र तत्र भविष्यति // 76 स आदिः स मध्यः स चान्तः प्रजानां देवा ऊचुः। स धाता स धेयः स कर्ता स कार्यम। एकपादस्थिते धर्मे यत्रक्कचनगामिनि / युगान्ते स सुप्तः सुसंक्षिप्य लोकाकथं कर्तव्यमस्माभिर्भगवंस्तद्वदस्व नः // 77 न्युगादौ प्रबुद्धो जगद्धथुत्ससर्ज // 89. श्रीभगवानुवाच / तस्मै नमध्वं देवाय निर्गुणाय गुणात्मने / यत्र वेदाश्च यज्ञाश्च तपः सत्यं दमस्तथा / अजाय विश्वरूपाय धान्ने सर्वदिवौकसाम् // 90 अहिंसाधर्मसंयुक्ताः प्रचरेयुः सुरोत्तमाः / महाभूताधिपतये रुद्राणां पतये तथा।.. स वै देशः सेवितव्यो मा वोऽधर्मः पदा स्पृशेत् // आदित्यपतये चैव वसूनां पतये तथा // 91 व्यास उवाच / अश्विभ्यां पतये चैव मरुतां पतये तथा / तेऽनुशिष्टा भगवता देवाः सर्षिगणास्तथा। वेदयज्ञाधिपतये वेदाङ्गपतयेऽपि च // 92 नमस्कृत्वा भगवते जग्मुर्देशान्यथेप्सितान् // 79 समुद्रवासिने नित्यं हरये मुलकेशिने। गतेषु त्रिदिवौकःसु ब्रह्मेकः पर्यवस्थितः / / शान्तये सर्वभूतानां मोक्षधर्मानुभाषिणे // 93 दिदृक्षुर्भगवन्तं तमनिरुद्धतनौ स्थितम् // 80 तपसां तेजसां चैव पतये यशसोऽपि च / तं देवो दर्शयामास कृत्वा हयशिरो महत् / वाचश्च पतये नित्यं सरितां पतये तथा // 94 साङ्गानावर्तयन्वेदान्कमण्डलुगणित्रधृक् // 81 कपर्दिने वराहाय एकशृङ्गाय धीमते / ततोऽश्वशिरसं दृष्ट्वा तं देवममितौजसम् / विवस्वतेऽश्वशिरसे चतुर्मूर्तिधृते सदा // 95 लोककर्ता प्रभुब्रह्मा लोकानां हितकाम्यया // 82 गुह्याय ज्ञानदृश्याय अक्षराय क्षराय च। मूर्धा प्रणम्य वरदं तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः / एष देवः संचरति सर्वत्रगतिरव्ययः // 96 स परिष्वज्य देवेन वचनं श्रावितस्तदा / / 83 / एवमेतत्पुरा दृष्टं मया वै ज्ञानचक्षुषा / लोककार्यगती: सर्वास्त्वं चिन्तय यथाविधि / कथितं तच्च वः सर्वं मया पृष्टेन तत्त्वतः // 97 धाता त्वं सर्वभूतानां त्वं प्रभुर्जगतो गुरुः / क्रियतां मद्वचः शिष्याः सेव्यतां हरिरीश्वरः / त्वय्यावेशितभारोऽहं धृतिं प्राप्स्याम्यथाञ्जसा // गीयतां वेदशब्दैश्च पूज्यतां च यथाविधि // 98 यदा च सुरकार्य ते अविषा भविष्यति / वैशंपायन उवाच। प्रादुर्भावं गमिष्यामि तदात्मज्ञानदेशिकः // 85 / इत्युक्तास्तु वयं तेन वेदव्यासेन धीमता / -2456 -

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