Book Title: Labdhisar
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 13
________________ ( १० ) अहमदाबादमें आगासान के बँगलेपर श्रीमद्जीने श्री लल्लुजी तथा श्री देवकरणजी मुनिको बुलाकर अन्तिम सूचना देते हुए कहा था- "हमारेमें और वातरागमे भेद न मानियेगा ।" एकान्तचर्या, परमनिवृत्तिरूप कामना थे; मोहमयी ( बम्बई ) नगरीमें व्यापारिक काम करते हुए भी श्रीमद्जी ज्ञानाराधना तो करते ही रहते थे और पत्रों द्वारा मुमुक्षुओंकी शंकाओंका समाधान करते रहते फिर भी बीच-बीच में पेढ़ी से विशेष अवकाश लेकर वे एकान्त स्थान, जंगल या पर्वतों में पहुँच जाते थे। मुख्यरूप से वे खंभात वडवा, काविठा, उत्तरसंडा नडियाद, वसो, राज बोर ईटर में रहे थे। वे किसी स्थान पर बहुत गुप्तरूपसे जाते थे, फिर भी उनको सुगन्धी छिन नहीं पाती थी। अनेक जिज्ञासु भ्रमर उनके सत्समागमका लाभ पानेके लिए पीछे-पीछे कहीं भी पहुँच ही जाते थे । ऐसे प्रसंगों पर हुए बोधका यत्किंचित् संग्रह 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थ में 'उपदेशछाया', 'उपदेशनोंध' और 'व्याख्यानसार' के नामसे प्रकाशित हुआ है । भी यद्यपि श्रीमद्जी गृहवास व्यापारादिमें रहते हुए भी विदेहोचत् थे फिर भी उनका अन्तरङ्ग सर्वसंगपरित्याग कर निर्ग्रन्थदशाके लिए छटपटा रहा था। एक पत्र में वे लिखते हैं- " भरतजीको हिरनके संगसे जन्मकी वृद्धि हुई थी और इस कारणसे जड़भरत के भव में असंग रहे थे। ऐसे कारणोंसे मुझे भी असंगता बहुत ही याद आती है; और कितनी ही बार तो ऐसा हो जाता है कि उस असंगताके विना परम दुःख होता है। बम अन्तकालमें प्राणीको दुःखदायक नहीं लगता होगा, परन्तु हमें संग दुःखदायक लगता है।" ( पत्रांक २१७ ) 3 फिर हाथोंमें वे लिखते हैं-"सर्वसंग महालवरूप श्री तीर्थकरने कहा है सो सत्य है। ऐसी मिश्रगुणस्थानक जैसी स्थिति कहाँ तक रखनी ? जो बात चित्तमें नहीं सो करनी; और जो चित्तमें है उसमें उदास रहना ऐसा व्यवहार किस प्रकार से हो सकता है? वैश्यवेषमें और निप्रंग्थभावसे रहते हुए कोटि-कोटि विचार हुआ करते हैं।" ( हायनोंध १-१८) "आचिन्यतासे विचरते हुए एकान्त मौनसे जिनसदृश ध्यान से तन्मयात्मस्वरूप ऐसा कब होऊँगा ?" ( हाथनोंध १-८७ ) संवत् १९५६ में अहमदाबादमें श्रीमद्जीने श्री देवकरणजी मुनि कहा था- "हमने सभामें स्त्री और लक्ष्मी दोनोंका त्याग किया है, और सर्वसंगपरित्यागकी आज्ञा माताजी देगी ऐसा लगता है।" और तदनुसार उन्होंने सर्वसंगपरित्यागरूप दीक्षा धारण करने की अपनी पाताजीसे अनुज्ञा भो ले ली थी। परन्तु उनका शारीरिक स्वास्थ्य दिन-पर-दिन बिगड़ता गया। ऐसे ही अवसर पर किसीने उनसे पूछा - " आपका शरीर कृश क्यों होता जाता है ?" श्रीमद्जीने उत्तर दिया--"हमारे दो बगीचे हैं, शरीर और आत्मा । हमारा पानी आत्मारूपी बगीने में जाता है, इससे शरीररूपी बगीचा सूख रहा है ।" अनेक उपचार करने पर भी स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ । अन्तिम दिनोंमें एक पत्र लिखते हैं- "अत्यन्त स्वरासे प्रवास पूरा करना था, वहाँ बोचमें बेहराका महस्वल आ गया। सिर पर बहुत बोझ था उसे आत्मबीयंसे जिस प्रकार अल्पकालमें सहन कर लिया जाय उस प्रकार प्रयत्न करते हुए, पैरोंने निकाचित उदयरूप थकान ग्रहण की। जो स्वरूप है वह अन्यथा नहीं होता यही अद्भुत आश्चर्य है । अव्याबाध स्थिरता है ।" ( पत्रांक ९५१ ) अन्त समय स्थिति और भी गिरती गई। शरीरका वजन १३२ पौंडसे घटकर मात्र ४३ पौंड रह गया। शायद उनका अधिक जीवन कालको पसन्द नहीं था । देहत्यागके पहले दिन शामको अपने छोटे भाई मनसुखलाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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