Book Title: Labdhisar
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ श्री कुन्दकुन्दाचार्यके 'पंचास्तिकाय' ग्रंथकी भूल गाथाओंका श्रीमद्जीने अविकल ( अक्षरशः ) गुजराती अनुवाद भी किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने श्री आनन्दघनजीकृत चौबीसीका अर्थ लिखना भी प्रारम्भ किया था, और उसमें प्रथम दो स्तवनोंका अर्थ भी किया था; पर वह अपूर्ण रह गया है। फिर भी इतने से, श्रीमद्जीकी विवेचन शैली कितनी मनोहर और तलस्पर्शी है उसका ख्याल आ जाता है। सूत्रोंका यथार्थ अर्थ समझने-समझाने में श्रीमद्जी की निपुणता अजोड़ थी। मतमतान्तरके आग्रहसे दूर श्रीमद्जी की दृष्टि बड़ी विशाल थी । वे रूढ़ि या अन्धश्रद्धाके कट्टर विरोधी थे । वे मतमतान्तर और कदाग्रहादिसे दूर रहते थे, वीतरागताकी ओर ही उनका लक्ष्य था। उन्होंने आत्मधर्मका ही उपदेश दिया। इसी कारण आज भी भिन्न-भिन्न सम्प्रदायवाले उनके वचनोंका रुचिपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते है । श्रीमद्जी लिखते हैं "मूलतत्त्वमें कहीं भी भेद नहीं है, मात्र दृष्टिका भेद है ऐसा मानकर आशय समझकर पवित्र धर्ममें प्रवृत्ति करना।” ( पुष्पमाला-१४ ) "तू चाहे जिस धर्मको मानता हो इसका मुझे पक्षपात नहीं, मात्र कहने का तात्पर्य यही कि जिस मार्गसे संसारमलका नाश हो उस भक्ति, उस धर्म और उस सदाचारका तू सेवन कर।" (पुष्पमाला-१५) "दुनिया मतभेदके बन्धनसे तत्त्व नहीं पा सकी।" ( पत्रांक-२७ ) "जहाँ तहाँसे रागद्वेषरहित होना ही मेरा धर्म है 'मैं किसी गच्छमें नहीं हूँ, परन्तु आत्मामें हूँ यह मत भूलियेगा।" ( पत्रांक-३७) श्रीमद्जी ने प्रीतम, अखा, छोटम, कबीर, सुन्दरदास, सहजानन्द, मुक्तानन्द, नरसिंह मेहता आदि सन्तोंकी वाणीको जहाँ-तहाँ आदर दिया है और उन्हें मार्गानुसारी जीव ( तत्त्वप्राप्तिके योग्य आत्मा) कहा है। फिर भी अनुभवपूर्वक उन्होंने जैनशासनकी उत्कृष्टताको स्वीकार किया है "श्रीमत् वीतराग भगवन्तोंका निश्चितार्थ किया हुआ ऐसा अचिन्त्य चिन्तामणिस्वरूप, परमहितकारी, परम अद्भुत, सर्व दुःखका निःसंशय आत्यन्तिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप ऐसा सर्वोत्कृष्ट शाश्वत धर्म जयवन्त वर्तो, त्रिकाल जयवन्त वर्तो। उस श्रीमत् अनन्तचतुष्टयस्थित भगवानका और उस जयवन्त धर्मका आश्रय सदैव कर्तव्य है।" ( पत्रांक-८४३ ) परम वीतरागदशा श्रीमद्जीकी परम विदेही दशा थी । वे लिखते हैं "एक पुराणपुरुष और पुराणपुरुषकी प्रेमसम्पत्ति सिवाय हमें कुछ रुचिकर नहीं लगता; हमें किसी पदार्थमें रुचिमात्र रही नहीं है। "हम देहधारी हैं या नहीं-यह याद करते हैं तब मुश्केलीसे जान पाते है।" ( पत्रांक-२५५ ) "देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है ऐसा हमारा निश्चल अनुभव है। क्योंकि हम भी अवश्य उसो स्थितिको पानेवाले हैं, ऐसा हमारा आत्मा अखण्डतासे कहता है और ऐसा ही है, जरूर ऐसा ही है ।" ( पत्रांक-३३४ ) "मान लें कि चरमशरीरीपन इस कालमें नहीं है, तथापि अशरीरी भावसे आत्मस्थिति है तो वह भावनयसे चरमशरोरीपन नहीं, अपितु सिद्धत्व है; और यह अशरीरीभाव इस कालमें नहीं है ऐसा यहाँ कहें तो इस कालमे हम खुद नहीं हैं, ऐसा कहने तुल्य है ।" ( पत्रांक-४११ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 744