Book Title: Kshirarnava
Author(s): Prabhashankar Oghadbhai Sompura
Publisher: Balwantrai Sompura

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Page 379
________________ अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय २९१ યેાજવા (૫૩) પેાતાની જાતી અને વધુ છંદના મેઘનાદ મ`ડપ એ ભૂમિના रथवो. ते यारे दिशाओ पोताना मुषथी शोलतो....... (५४). क्षेत्र के ब्रह्मस्थान में पच्चीश खंड-पदमें चोमुखकी रचना करना । तीन पाँच छ इस तरह जोड़ते प्रासादों रथके साथ अंगोंको योजना | सो पदके कोटेके मध्य में चारों दिशामें मेघनाद मंडपकी रचना करना । जिसे तरह प्रासाद को रथादि अंग युक्त करना इस तरह मंडपों वेदि कक्षासन युक्त करना । (५१) क्षेत्रकी लम्बाई और चौडाईके योगसे सत्रह कोठे करना । उसमें चौरसाइमें सोलह स्तंभ बाहरकी ( उत्तर ) दिशा में करना । युक्तिसे चतुर्मुख हमेशा.... योजना ५३ मंडप दो भूमिका रचना | वह ५०-५१-५२-५३-५४. .... अपनी जाती और वर्णाके छंदका मेघनाद चारों दिशामें अपने मुखसे शोभता द्विसप्तति जिनान्यक्षे नालिमंडप जिनविर | रचिताम्यमत्त मेरुकृते नृपला भास्करेक्ति कारका सदा पदतश्चले ॥५५॥ મહાત્તેર જિનાયતનમાં નીચે નાલિ મપ............ઉપર ખાર સ્તંભના भडभांरभ्य सेवा "मे३" नी रचना १२वी.... ૫૫ उपर बारह स्तंभका मंडप ५५ बहोतर जिनायत में नीचे नालि मंडप से रम्य ऐसे "मेरु" की रचना करनी **** .... 4400 .... प्रासाद भवने चैव आयामे विस्तरे शुभम् । भाकं च भवेत्कर्ण पंचाशिति शतद्वयम् ॥ ५६ ॥ मुखमंडितम् ॥ ५७ ॥ युक्ति वाह्यं प्रकर्तव्यं चतुष्कोष्टा मुखाग्रे च । जलांन्तरं गतं द्वारं वेदिका 'चंद्ररेखा च संस्थाने भद्रं च नवभागिकाम् | निष्कांश भागमेकेन चतुर्दिक्षु व्यवस्थितम् ॥ ५८ ॥ त्रीणि त्रीणि भवेत्वेदी स्थापदैन न नाभं च षोडश ! जिनत्राचं वरमुच्यते ! चतुर्भूमियदानि च ॥ ५९ ॥ पदेकं षोडश पदे च मध्यस्तु पद (वेद) मुखै । इलिका तौरणैर्युक्तं रवि रेखा विराजितं ॥ ६० ॥ नार्लिमंडप संयुक्ता द्वित्रिभूमि समाकुलाः । वेदिकासन पट्टेश्व पंक्ति सोपान संचयः ॥ ६१ ॥

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