________________
३२०
- क्षीरार्णव भ, १२० क्रमांक अ. २२ __महा प्रासादके रेखापर हो उसके तीन भाग कहता हूँ। उसके एक भागके (दो) भ्रमों करना । और उसकी तीन बाजु पर मंडपों करना । उन्हें कुछ निकलते करना । एक भाग अंदर...विचक्षण शिल्पीको करना । दो-भूमि वेदिकावाले मंडपों तीन दिशाओंमें करना । आगे रंगमंडपकी डेढ़ मजलेके बराबर विशेष भूमि-उभणी रखना । पाँच पद विभागका आगेका बलाणक मंडप दो भूमियुक्त और वेदिकावाला विचक्षण शिल्पीको करना चाहिये । चार....नव....आगे नाली मंडप बुद्धिमान शिल्पीको करना चाहिये । १५८ से १६१
विस्तार युक्तिमाख्यातं निर्गमं श्रृणुतो मुनिः । ब्रह्म मूलमार्गानि नालिद्वारं च षोडश: ॥१६२॥ त्रयोदक्षे त्रयोपक्षे भद्रांते विचक्षण । निर्गम भागमेकेन विस्तारं च त्रयोदश ॥१६३।। मुखभद्र मूलसंस्थाने निर्गमे भाग भागांतरे ।
फालयेत्प्राज्ञ......चतुर्दिक्ष विधियता ॥१६३॥ ભાવાર્થ-વિસ્તારના વિભાગ કહ્યા. હવે નીકળતા કેટલા રાખવા તે હે भुनि, समो . असा गम ग्रह भूद भान नासिवान। सो ?....४२पा. ત્રણે દિશાએ ત્રણે બાજુ ભદ્રને અંતે વિચક્ષણ શિલ્પીએ કરવું. તેનો નીકાળો એકેક ભાગ અને વિસ્તારમાં તેર ભાગ–પદ–ષણ જાણવા. મૂખભદ્ર મૂળ સંસ્થાન એકેક ભાગના આંતરે તેની ફાલનાઓ ચતુર શિલ્પીએ રાખવી. તે રીતે ચાર हिशमान विधि ngi. १९२-११३-१६४.
विस्तारके विभाग कहे । अब निकलते कितने रखना यह हे मुनि, सुनो। खड़े गर्भ ब्रह्म मूलमार्गके नालिद्वारके सोलह !....करना । तीनों दिशाओंमें तीनों बाजु भद्रके अंतमें विचक्षण शिल्पीको करना चाहिये । उसका निकाला एक एक भाग और विस्तारमें तेरह भाग-पद भी जानना । मुख भद्र मूल संस्थानके एक एक भागके अंतरसे उसकी फाकनाओं चतुर शिल्पी रखें। इस तरह चार दिशाओंका विधि जानना । १६२-१६३-१६४
पुनः चैइद्र समारभ्यं षड् नंदे प्रदक्षणे । चत्वारौ मूलयुक्ता च अष्टौते च महाधरा ॥१६५।। एवंदा समायुक्ता संख्या मष्टोत्तरंशतम् । तस्योर्द्ध पुनः द्यष्ट प्रमाणं च अतः शृणु ॥१६६॥ त्यक्ता नालि पुनः युक्ति श्रृणुत्वेकाग्रतो मुनि । मेघनाद स चाग्रे...मंडपे च क्षणंतरे ॥१६७॥