Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 7
________________ १२ क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका ९. अधिकतम २५ छात्रों की कक्षा को पढ़ाने में ४५ मिनट के कम से कम १०० कालखण्ड (पीरियड़) चाहिए। इसमें प्रत्येक छात्र से छात्र-पठन कराने तथा उससे सम्बन्धित प्रश्न पूछने का पर्याप्त अवसर मिलता है। परन्तु प्रत्येक स्थान पर ऐसा नियमित शिक्षण सम्भव नहीं है। अतः ८-१० दिन के शिविरों में प्रतिदिन सुबह-शाम कम से कम एक-एक घण्टे का शिक्षण दिया जाना चाहिए। प्रश्नोत्तर के लिए १५-२० मिनिट अलग रखे जानी चाहिए। १०. ऐसे शिविरों में पुस्तक का प्रत्येक अंश पढ़ाना, उसे समझाना तथा तत्सम्बन्धी प्रश्नोत्तर करना सम्भव नहीं है, अतः विषय से सीधे सम्बन्धित प्रकरणों की मुख्यता रखी जाए तथा आगमप्रमाणों एवं प्रासंगिक विषयों को गौण किया जाए, तभी अल्प समय में सम्पूर्ण विषय का शिक्षण देना सम्भव होगा। ११. क्रमबद्धपर्याय का अनुशीलन खण्ड ६७ पृष्ठों का महानिबन्ध है। पठन-पाठन में सुविधा की दृष्टि से इसे इस निर्देशिका में छोटे छोटे गद्यांशों में बाँटा गया है, तथा उन गद्यांशों का शीर्षक भी दिया गया है। किस दिन कितने गद्यांश पढ़ाना है, इसकी योजना पहले से निश्चित कर लेना चाहिए। १२. यद्यपि सम्पूर्ण शिक्षण सत्र में प्रत्येक अंश का आदर्श-वाचन, अनुकरण वाचन आदि सभी सोपानों का प्रयोग करना आवश्यक है, तथापि ८-१० दिन के शिविर में यह संभव नहीं है; अतः प्रारंभ में समयानुसार १-२ अंशों का आदर्श वाचन करके छात्रों को आदर्श-पठन का नमूना बता देना चाहिए। फिर शेष अंश छात्रों से ही पढ़वाना चाहिए। १३. 'छात्र-पठन' कराते समय प्रशिक्षण निर्देशिका में दिए गए 'अनुकरण वाचन' के सभी निर्देशों का पालन करना चाहिए। १४. प्रतिपाद्य विषय के बाद दिए गए प्रश्नों को छात्रों से पूछा जाए। प्रश्न पूछने में छात्रों की योग्यतानुसार वस्तुनिष्ठ पद्धति के विविध सोपानों का नियमानुसार प्रयोग किए जाए। ये प्रश्न पहले से ही बोर्ड पर लिखे हों, ताकि छात्र उन्हें अपनी कॉपी में नोट कर सकें । इनके उत्तर पाठ्यपुस्तक अथवा निर्देशिका में दिए गए विचार बिन्दुओं के आधार पर छात्र स्वयं लिखें,यही सर्वश्रेष्ठ पद्धति है। यदि पर्याप्त समय हो तो अध्यापक कक्षा में ही इनके उत्तर लिखा सकते हैं। आजकल प्रश्नोत्तर टाइप कराके उनकी फोटो कॉपी वितरित की जाती है। यह अपवाद मार्ग है । १०-१५ दिवसीय शिविरों में समय व श्रम बचाने हेतु यह मार्ग भले अपनाया जाए, परन्तु नियमित शिक्षण-कक्षा में यह उचित नहीं है। अध्यापक प्रश्न लिखायें व छात्र उसके उत्तर लिखकर लायें तो विषय के चिंतन में उनका उपयोग भी लगेगा, जिससे उन्हें विषय का अच्छी तरह भाव-भासन हो सकेगा, तथा उन्हें प्रश्नोत्तर याद भी जल्दी हो जायेंगे। *** विषय-प्रवेश सर्वप्रथम आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी का संक्षिप्त परिचय देकर उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों का उल्लेख करते हुए क्रमबद्धपर्याय विषय की चर्चा प्रारंभ की जाए, तथा इस विषय को समझने की आवश्यकता प्रतिपादित की जाए। एतदर्थ निम्न आशय के विचार व्यक्त किये जायें : "आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी की मंगल वाणी के प्रताप से इस युग में अभूतपूर्व आध्यात्मिक क्रान्ति का सृजन हुआ। पूज्य गुरुदेवश्री के सातिशय प्रभावना योग में वीतराग दिगम्बर जैन धर्म के प्रचार-प्रसार की जो गतिविधियाँ समाज में चल रही हैं, वे सर्वविदित हैं। उनके प्रवचनों के माध्यम से समाज में सात तत्व, सम्यग्दर्शन व उसका विषय, कर्ता-कर्म, निमित्त-उपादान, षट्कारक निश्चय-व्यवहार, क्रमबद्धपर्याय, अकर्त्तावाद, पाँच समवाय, अनेकान्त-स्याद्वाद, रत्नत्रय आदि अनेक विषयों को समझने की न केवल जिज्ञासा जागृत हुई, अपितु हजारों-लाखों लोगों में इन विषयों की यथार्थ समझ भी विकसित हुई है। दिगम्बर समाज में विद्यमान सैकड़ों आध्यात्मिक प्रवक्ता, सैकड़ों स्वाध्याय सभायें एवं हजारों स्वाध्यायी आत्मार्थी भाई-बहनों के रूप में हम इस आध्यात्मिक क्रान्ति का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। वैसे तो पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा समझाए गए जिनागम के सभी विषयों की चर्चा और उनका पठन-पाठन समाज में चल रहा है; परंतु उनमें 'क्रमबद्धपर्याय' सर्वाधिक चर्चित विषय है। पूज्य गुरुदेवश्री स्वयं अपने प्रवचनों में “जे द्रव्यनी, जे काले, जे पर्याय, जे निमित्तनी हैयाती मा जेम थवानी छे; तेज द्रव्यनी, तेज काले, तेज पर्याय, तेज निमित्तनी हैयाती मा तेमज थया बिना रहेशे नहीं".... इन शब्दों के माध्यम से अत्यंत प्रमोद भाव से इस विषय की चर्चा किया करते थे। वे अपने प्रवचनों में इस विषय को समझकर सर्वज्ञता का निर्णय करने पर बहुत वजन देते थे। उन्हें इस सिद्धान्त की श्रद्धा स्थानकवासी साधु अवस्था में ही जिनागम के आधार पर स्वयं के चिन्तन मनन एवं पूर्व संस्कार से हो गई थी। इस सन्दर्भ में वे स्वयं एक घटना की चर्चा करते थे; जिसका भाव निम्नानुसार है -

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