Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 58
________________ ११४ क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका प्रवाह की अपेक्षा देखा जाए तो वह सम्यक्त्व भाव अपने स्वकाल में सदैव निश्चित है, कभी आगे-पीछे नहीं होगा, अत: अखण्ड प्रवाह में उसका काल ध्रुव है। इसप्रकार सम्यग्दर्शनरूप परिणाम में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक साथ घटित होने से वह त्रिलक्षणमय है। यही विलक्षण परिणाम पद्धति है। प्रश्न ४. सम्यग्दर्शन पर्याय कालरूप है या भावरूप है? उत्तर :- तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में जीव के तिरेपन भावों का वर्णन किया गया है। उसमें सम्यग्दर्शन की चर्चा उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक भाव के अन्तर्गत आई है। अतः जीव के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में सम्यग्दर्शन उसका अन्तर्भाव का अन्तर्भाव भाव में ही है। जब द्रव्य-गुण-पर्याय की चर्चा की जाए, तब काल और भाव दोनों के अभेदरूप से उसे पर्याय कहा जाता है। मिथ्यादर्शन तथा शभाशभ भाव औदयिकभाव हैं। उपशम क्षयोपशम, क्षायिक और औदयिक ये चारों भाव पर्यायरूप हैं, अर्थात् प्रवाहक्रम के सूक्ष्म अंशरूप परिणामों में उत्पन्न होने से उत्पाद-व्ययरूप हैं। परम-पारिणामिक भाव स्वरूप ज्ञायक भाव त्रिकाल, एक अखण्डध्रुवरूप है, वह उत्पाद-व्ययरूप नहीं है। प्रश्न ५. द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव परस्पर भेदरूप हैं या अभेदरूप? उत्तर :- भाई! वस्तु में भेद और अभेद दोनों धर्म हैं, अतः उत्पाद-व्ययध्रुव; द्रव्य-गुण-पर्याय तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव; कथञ्चित् भिन्न भी हैं और कथञ्चित अभिन्न भी हैं। जब वस्तु को उसके स्व-चतुष्टय के माध्यम से समझा जाता है तो इन चारों का भिन्न-भिन्न स्वरूप निम्नानुसार समझना चाहिए : द्रव्य = गुण-पर्यायों अथवा क्षेत्र काल और भाव को धारण करने वाली मूल सत्ता। क्षेत्र = द्रव्य का विस्तार अर्थात् उसके द्वारा ग्रहण किया गया स्थान । काल = द्रव्य की अनादि-अनन्त अखण्ड स्थिति जिसमें प्रतिसमय-वर्ती परिणमन अखण्डरूप से सम्मिलित हैं। क्रमबद्धपर्याय : प्रासंगिक प्रश्नोत्तर भाव = द्रव्य की शक्तियां, गुण, धर्म, स्वभाव आदि। मोह-राग-द्वेष, पुण्य-पाप, आदि विकारी भाव वस्तुतः द्रव्य के स्वचतुष्टय में प्रतिष्ठित नहीं हैं। वे पानी में पड़ी तेल की बूंद के समान ऊपर-ऊपर तैरते हैं; अर्थात् वे प्रवाहक्रम के कुछ अंशों की उपाधि हैं, अतः उन्हें औपाधिकभाव भी कहते हैं। उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक भाव स्वभाव के अवलम्बन से होते हैं अतः इन्हें स्वभाव-भाव कहते हैं। त्रिकाली ज्ञायकभाव की अपेक्षा नियमसार गाथा ५० में इन चारों भावों को पर-द्रव्य और पर-स्वभाव कहकर हेय कहा है। वस्तुतः काल तो समयवाची शब्द है। प्रत्येक द्रव्य और प्रत्येक गुण में प्रति समयवर्ती सूक्ष्म अंश-भेद होता है, जिसे एक समय की पर्याय कहा जाता है। ये उपशमादि चार भाव उस गण की तत्समय की पर्यायगत योग्यता से स्वयं उत्पन्न होते हैं। कर्म की उपशमादि पर्यायें इनमें निमित्त होती हैं, अतः इन्हें नैमित्तिक भाव भी कहते हैं। किस कालाँश में कौनसा भाव उत्पन्न होगा - यह निश्चित हैं, तथा इसी नियम को क्रमबद्धपर्याय कहते हैं। जिसप्रकार साइकिल की चैन में अनेक कड़ियां होती हैं, जिनके बीच का स्थान खाली होता है। साइकिल चलाते समय एक-एक कड़ी के खाली स्थान में गेयर का एक-एक दांता खचित होता जाता है, उसीप्रकार द्रव्य का काल पक्ष साइकिल की अखण्ड चैन के समान है; उसकी कड़ियां प्रवाहक्रम का सूक्ष्म अंश मात्र हैं, तथा उपशमादि चार भावों से कथंञ्चित् भिन्न है। द्रव्यरूपी साइकिल निरन्तर गतिशील रहती है, अतः उसकी प्रत्येक कड़ी के खाली स्थान में उपशमादि चार भावरूपी दांता खचित होता जाता है। किस कड़ी में कौन सा दांता खचित होगा, अर्थात् किस काल (पर्याय) में कौन सा भाव खचित होगा - यह वस्तु की परिणमन व्यवस्था में निश्चित है। तदनुरूप पुरुषार्थ, निमित्त, आदि सभी कुछ निश्चित है, और सर्वज्ञ के ज्ञान में झलकता है। प्रश्न ६. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में दृष्टि का विषय क्या है? उत्तर :- दृष्टि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावमय अखण्ड वस्तु को ही भेद और अभेद का विकल्प किये बिना अपना विषय बनाती है। सर्वप्रथम ज्ञान द्वारा भाव 59

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