Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 31
________________ ६० इस पर कुछ लोग कहते हैं... गद्यांश २० क्रमबद्धपर्याय: निर्देशिका (पृष्ठ ३५ पैरा १ से ३७ पैरा ६ तक) . विचार किया जाएगा। विचार बिन्दु : १. अज्ञानी कहता है कि भले हम पर-पदार्थों का परिणमन नहीं कर सकते, परन्तु ज्ञान तो हमारी पर्याय है, इसलिए हम यह तो निश्चित कर ही सकते हैं कि हम किस ज्ञेय को जानें और किस ज्ञेय को न जानें? अतः हम ज्ञान पर्याय को स्वभाव - सन्मुख तो कर ही सकते हैं? २. ज्ञान को स्वभाव - सन्मुख करने के विकल्पों से ज्ञान स्वभाव - सन्मुख नहीं होता, अपितु इस विकल्प के भार से भी निर्भर होने पर ज्ञान स्वभावसन्मुख होता है। ज्ञान की जिस पर्याय में जिस ज्ञेय को जानने की योग्यता है, वह पर्याय उसी ज्ञेय को अपना विषय बनायेगी, उसमें किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं चल सकता। ३. ज्ञेय के अनुसार ज्ञान नहीं होता, अपितु ज्ञान की योग्यतानुसार ज्ञेय जाना जाता है। (प्रमेय रत्नमाला में दिये गये उदाहरण तथा अन्य उदाहरणों से स्पष्ट करना) । ४. विशिष्ट ज्ञेय सम्बन्धी आवरण कर्म का क्षयोपशम जिसका लक्षण है ऐसी योग्यता ही ज्ञान के ज्ञेय को सुनिश्चित करती है। ५. बौद्ध दर्शन में ज्ञान की ज्ञेय से उत्पत्ति, ज्ञान का ज्ञेयाकार परिणमन तथा ज्ञान का ज्ञेयों में व्यवसाय अर्थात् ज्ञेय को जानना स्वीकार किया जाता है; परन्तु जैन-दर्शन में, योग्यता के आधार पर ज्ञान का परिणमन माना गया है। ६. प्रत्येक पर्याय का ज्ञेय भी निश्चित है, अतः हमें स्व को जानने का बोझ भी नहीं रखना है, तभी हमारी दृष्टि स्वभाव सन्मुख होगी। उपदेश में ऐसी भाषा आती है कि दृष्टि को आत्म-सन्मुख करो अर्थात् आत्मा को जानो परन्तु यह कथन उपचार से है। 32 क्रमबद्धपर्याय: एक अनुशीलन प्रश्न : ४९. स्व को जानने के सम्बन्ध में अज्ञानी की क्या मान्यता है? ५०. ज्ञेय को जानने के सम्बन्ध में बौद्धों की क्या मान्यता है? ५१. ज्ञान द्वारा ज्ञेयों को जानने की क्या व्यवस्था है? ५२. दृष्टि स्वभाव - सन्मुख किस प्रकार होती है? **** प्रत्येक पर्याय स्वकाल में सत् है गद्यांश २१ प्रत्येक द्रव्य पर्वत है... ६१ . होने का एक काल है। (पृष्ठ ३७ पैरा ७ से पृष्ठ ३९ पैरा ४ तक) विचार बिन्दु : १. जिसप्रकार द्रव्य पर्वत के समान अचल है, उसी प्रकार पर्याय भी अचला है, उसे चलायमान करना सम्भव नहीं है। द्रव्य के समान पर्याय स्वभाव भी अनन्त शक्तिशाली है। उसे उसके स्वसमय से हटाने में कोई भी समर्थ नहीं है। २. द्रव्य त्रिकाल का सत् है, और पर्याय स्वकाल की सत् है अर्थात् वह भी सती है। उसे छेड़ने की मान्यता घोर अपराध है, जिसका फल चतुर्गति में भ्रमण है। ३. द्रव्य गुण की अचलता हमें सहज स्वीकृत है, इसलिए उनमें परिवर्तन करने का विकल्प नहीं आता, परन्तु पर्याय की अचलता हमारे ख्याल में नहीं आती, अतः उसमें फेरफार करने की बुद्धि बनी रहती है, जो क्रमबद्ध पर्याय को समझने से मिट जाती है। ४. पर्यायों में फेरफार करने की बुद्धि ही अज्ञान है, यही कर्त्तावाद है, जिसका निषेध समयसार के कर्त्ताकर्म अधिकार और सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार में किया

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