Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 32
________________ ६२ क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका गया है। ५. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है, तथा द्रव्य अपनी पर्यायों का कर्ता होते हुए भी उनमें फेरफार कर्त्ता नहीं है - यही जैन-दर्शन के अकर्त्तावाद का चरम बिन्दु है। ६. स्वभाव-सन्मुख दृष्टि होकर सम्यग्दर्शन प्राप्त होना ही क्रमबद्धपर्याय की सच्ची श्रद्धा है। सम्यग्दर्शन ही उसका फल है। यदि क्रमबद्धपर्याय को मानने पर भी स्वभावसन्मुख दृष्टि नहीं हुई, तो समझना चाहिए कि हमें शास्त्रज्ञान से उत्पन्न धारणारूप विकल्पात्मक श्रद्धा मात्र हुई है, सच्ची श्रद्धा नहीं। प्रश्न :५३. द्रव्य में पर्याय की महत्ता उदाहरण सहित समझाइये? ५४. पर्यायों में परिवर्तन की बुद्धि अज्ञान क्यों है? ५५. जैन-दर्शन के अकर्त्तावाद का चरम बिन्दु क्या है? ५६. क्रमबद्धपर्याय की विकल्पात्मक श्रद्धा और सच्ची श्रद्धा क्या है? ५७. क्रमबद्धपर्याय की सच्ची श्रद्धा का क्या फल है? **** क्रमबद्धपर्याय, एकान्त नियतिवाद और पुरुषार्थ गद्यांश २२ कुछ लोगों का यह भी.............. ...............सच्चे अनेकान्तवादी हैं। (पृष्ठ ३९ पैरा ५ से पृष्ठ ४० से पैरा ४ तक + पृष्ठ ४१ पैरा ७ से पृष्ठ ४२ पैरा ५ तक) विचार बिन्दु : १. गोम्मटसार में एकान्त नियतिवादी को मिथ्यादृष्टि कहा है, अतः कुछ लोग क्रमबद्धपर्याय को भी एकान्त नियतिवाद अर्थात् मिथ्यात्व कहते हैं; परन्तु उनकी यह मान्यता सही नहीं है। पुरुषार्थ आदि अन्य समवायों का निषेध करना एकान्त नियतिवाद है, जबकि क्रमबद्ध पर्याय की श्रद्धा में एकान्त नियतिवाद या मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि इसमें अन्य समवायों का निषेध नहीं अपितु उनकी स्वीकृति है। क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन २. जिनेन्द्र सिद्धान्त कोष में 'नियति' देव 'काललब्धि' और भवितव्य को निम्नानुसार परिभाषित किया गया है। ___ "जो कार्य या पर्याय जिस निमित्त के द्वारा जिस द्रव्य में जिस क्षेत्र व काल में उसी प्रकार से होना है, वह कार्य उसी निमित्त के द्वारा उसी द्रव्य, क्षेत्र व काल में उसी प्रकार से होता है। ऐसी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावरूप चतुष्टय से समुदित नियत कार्य व्यवस्था को नियति कहते हैं। नियत कर्मोदयरूप निमित्त की अपेक्षा से इसे ही 'दैव' नियत काल की अपेक्षा इसे ही काललब्धि' और होने योग्य कार्य की अपेक्षा इसे ही भवितव्य' कहते हैं।" ३. करने-धरने के विकल्पवाली रागी बुद्धि में सब कुछ अनियत प्रतीत होता है, और निर्विकल्प समाधि के साक्षीमात्र भाव में विश्व की समस्त कार्य व्यवस्था नियत होती है। ४. गोम्मटसार में जिस एकान्त नियतिवादी का वर्णन किया गया है, वह जीव स्वच्छन्दी है, उसने ज्ञान स्वभाव का निर्णय नहीं किया है, अतः वह गृहीत मिथ्यादृष्टि है। ज्ञानस्वभाव के निर्णयपूर्वक यदि इस क्रमबद्धपर्याय को समझें, तो स्वभाव-सन्मुख पुरुषार्थ द्वारा मिथ्यात्व और स्वच्छन्ता टूट जाती है। ५. क्रमबद्धपर्याय को मानने पर पुरुषार्थ उड़ जाता है ऐसा अज्ञानी मानते हैं। क्रमबद्धपर्याय के निर्णय से कर्ता-बुद्धि का मिथ्या अभिमान टूट जाता है और निरन्तर ज्ञायकपने का सच्चा पुरुषार्थ होता है। ६. "ज्ञायक स्वभाव के आश्रय से पुरुषार्थ होता है, तथापि पर्यायों का क्रम नहीं टूटता । देखो, यह वस्तु स्थिति! पुरुषार्थ भी नहीं उड़ता और क्रम भी नहीं टूटता । ज्ञायक स्वभाव के आश्रय से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि का पुरुषार्थ होता है और वैसी निर्मल दशायें होती जाती है, तथापि पर्यायों की क्रमबद्धता नहीं टूटती।" विशेष निर्देश :- उपर्युक्त गद्यांश पर विशेष ध्यानाकर्षित करते हुए स्पष्टीकरण किया जाए। 33

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66