Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए? एकान्त, अनेकान्त और क्रमबद्धपर्याय गद्यांश२५ इस दृष्टि से विचार करने........... ............गंभीरता से विचार करें। (पृष्ठ ४४ पैरा ७ से पृष्ठ ४८ से पैरा ६ तक) विचार बिन्दु : १. क्रमबद्धपर्याय की स्वीकृति में पाँच समवायों में काल की मुख्यता से कथन किया जाये तो सम्यक-एकान्त होगा, क्योंकि इसमें पुरुषार्थ आदि समवायों को गौण किया है; उनका निषेध नहीं किया गया। २. कार्य की उत्पत्ति पाँचों समवायों से होती है, परन्तु किसी एक समवाय को मुख्य करके उससे कार्य की उत्पत्ति कही जाती है। उस समय कथन में अन्य समवाय गौण रहते हैं, उनका अभाव अपेक्षित नहीं होता है। इसप्रकार क्रमबद्धपर्याय की व्यवस्था को सम्यक्-एकान्त भी कहा जा सकता है, जो कि सम्यक्-अनेकान्त का पूरक है, विरोधी नहीं। ___३. क्रमबद्धपर्याय व्यवस्था का व्यापक स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह पहले ही कहा जा चुका है कि "जिस द्रव्य की, जिस क्षेत्र में, जिस काल में, जो पर्याय जिस विधि से तथा जिस निमित्त की उपस्थिति में होना है; उसी द्रव्य की, उसी क्षेत्र में, उसी काल में वही पर्याय, उसी विधि से तथा उसी निमित्त की उपस्थिति में होगी" इस व्याख्या के अनुसार वस्तु की परिणमन व्यवस्था में न केवल विवक्षित परिणमन का स्वकाल निश्चित है, अपितु उस परिणमन से सम्बन्धित द्रव्य, क्षेत्र, भाव, विधि (पुरुषार्थ) निमित्त आदि सभी बातें निश्चित हैं, इसलिए वे सर्वज्ञ के ज्ञान में झलकते हैं और तदनुसार कार्य की उत्पत्ति होती है। ४. सभी सम्बन्धित पक्ष निश्चित हैं - इस व्यवस्था को इस प्रकार कहा जा सकता है कि "जिस जीव को केवलज्ञान होना होगा, उसी को होगा, अन्य जीव को नहीं; जिस स्थान पर होना होगा, उसी स्थान पर होगा, अन्य स्थान क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन पर नहीं, जब होना होगा तभी होगा, अन्य समय में नहीं..... इत्यादि । ५. अज्ञानी को द्रव्य, क्षेत्र, निमित्त आदि के निश्चित होने में कोई आपत्ति नहीं होती, परन्तु काल के निश्चित होने में उसे बन्धन, पुरुषार्थ-हीनता आदि की शंका होती है। उतावलेपन की वृत्ति के कारण वह विवक्षित कार्य को जल्दी करना चाहता है, जल्दी करने में ही उसे पुरुषार्थ लगता है, तथा निश्चित समय पर, कार्य होने में उसे पुरुषार्थ-हीनता लगती है। ६. जिस जीव की सम्यक्त्वपर्याय का काल दूर होता है, उसे काल की नियमितता का विश्वास नहीं होता । लोक में भी देखा जाता है कि अल्प समय पश्चात् होने वाले कार्य को लोग सहज स्वीकार कर लेते हैं और तदनुकूल प्रयत्न करने लगते हैं; जबकि बहुत समय बाद होने वाले कार्य के प्रति उदासीन रहते हैं। परीक्षा कार्यक्रम घोषित होते ही विद्यार्थी-गण पढ़ाई में लग जाते हैं, तथा जब तक परीक्षा कार्यक्रम घोषित न हो, तब तक पढ़ाई में एकाग्र नहीं होते। इससे सिद्ध होता है कि जिसका आत्महित का काल दूर है, उन्हें काल का निश्चित होना नहीं सुहाता, इसलिए वे पर्यायों के क्रम में परिवर्तन की मिथ्याबुद्धि से ग्रस्त रहते हैं और स्वभाव-सन्मुखता का पुरुषार्थ नहीं करते। आज सारी दुनिया उतावली हो रही है, विषयों में अन्धी होकर दौड़ रही है। यह अपनी दौड़ में इतनी व्यवस्त है कि कहाँ जाना है और क्यों जाना है? इसका विचार करने की भी उसे फुरसत नहीं है। कहा भी है : भोगों को अमृतफल जाना, विषयों में निशदिन मस्त रहा। उनके संग्रह में हे प्रभुवर, मैं व्यस्त त्रस्त अभ्यस्त रहा। विशेष निर्देश :- उक्त पंक्तियों में व्यस्त' 'त्रस्त' और 'अभ्यस्त' शब्द विशेष ध्यान देने योग्य हैं। इन्हें उदाहरण देकर समझाना चाहिए। ७. किसी भी चौराहे पर इस जगत का उतावलापना देखा जा सकता है, जहाँ मौत की कीमत पर भी व्यक्ति दो मिनिट भी रुकना नहीं चाहता। ऐसे उतावले और अधीर लोगों की समझ में यह बात कैसे आ सकती है कि जो कार्य जब होना होगा तभी होगा। धैर्यपूर्वक गम्भीर मनन-चिन्तन करने वाले 36

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66