Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 19
________________ ३६ तथा क्या करणानुयोग में.. गद्यांश १० क्रमबद्धपर्याय: निर्देशिका . पर ऐसा नहीं होता है। (पृष्ठ १६ पैरा २ से पृष्ठ १७ पैरा ४ तक ) विचार बिन्दु :- इस गद्यांश में करणानुयोग में वर्णित वस्तु व्यवस्था के कुछ नियमों के आधार पर सिद्ध किया गया है कि प्रत्येक जीव के समस्त भव और उनका क्रम निश्चित है । वे नियम निम्नानुसार है : १. छः महीने आठ समय में छः सौ आठ जीवों का निगोद से निकलना और इतने ही जीवों का मोक्ष जाना निश्चित है। इस संख्या में कभी परिवर्तन नहीं होता है 1 २. चारों गतियों के जीवों की संख्या निश्चित है, इसमें भी कोई परिवर्तन नहीं होता। ३. प्रत्येक जीव नित्यनिगोद से अधिकतम दो हजार सागर के लिए निकलता है तथा दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय आदि के निश्चित भव धारण करता है। जैसे मनुष्य के ४८ भव मिलते हैं। उक्त नियमों से यह निष्कर्ष निकलता है कि चारों गतियों के जीवों की संख्या, प्रत्येक जीव के भाव तथा पुण्य-पाप आदि भाव और तदनुसार कर्मों का बन्ध-उदय आदि सम्पूर्ण व्यवस्था सुनिश्चित है। इस पर लोगों को लगता है कि.... प्रश्न : १८. करणानुयोग में प्रतिपादित किन नियमों के आधार पर सुनिश्चित क्रमबद्ध परिणमन की व्यवस्था सिद्ध होती है। ********* पुण्य-पाप भाव भी हमारी इच्छानुसार नहीं होते गद्यांश 99 (पृष्ठ १७ पैरा ५ से पृष्ठ २० पैरा ३ तक) ...किया गया है। 20 क्रमबद्धपर्याय: एक अनुशीलन विचार बिन्दु : १. जब यह कहा जाता है कि प्रत्येक जीव के परिणाम, कर्मबन्ध, उदय तथा भव आदि सब निश्चित हैं, हम उसमें परिवर्तन नहीं कर सकते तो अनेक लोगों को यह आपत्ति होना स्वाभाविक है कि हमारे हाथ में तो कुछ नहीं रहा, हम तो एकदम बंध गए। पुरुषार्थ की व्यर्थता या निष्फलता सम्बन्धी अनेक प्रश्न भी उत्पन्न होते हैं, जिनकी चर्चा आगे यथास्थान की आएगी। ३७ वास्तव में शुभाशुभ भाव क्रमशः अपने आप बदलते रहते हैं। कोई भी परिणाम धारावाही रूप से अन्तमुहूर्त तक ही रहता है, इससे अधिक नहीं। जीव की इच्छा या प्रयत्न से कुछ भी परिवर्तन नहीं होता । निगोद से निकलकर जीव अपनी योग्यतानुसार पुण्य भाव करके मनुष्य गति प्राप्त करता है। इस सन्दर्भ में भरत चक्रवर्ती के पुत्रों की चर्चा प्रसिद्ध है, जो निगोद से निकलकर चक्रवर्ती के पुत्र होकर मोक्ष गए। ढाई - द्वीप के सभी तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, इन्द्र आदि के भव भी केवली भगवान के ज्ञान में निश्चित हैं, तथा यथासमय उस क्षेत्र के केवली आदि की वाणी में भी यह सब जानकारी आती है। इससे यह सिद्ध होता है कि हम अपनी इच्छानुसार पुण्य करके तीर्थंकर इन्द्र, चक्रवर्ती या देव आदि हो जायें यह सम्भव नहीं है। नरक जाने योग्य भाव भी हम अपनी इच्छानुसार न तो कर सकते हैं और न होनेवाले भावों को रोक सकते हैं। हमारी तत्समय की योग्यतानुसार जो भाव होने हैं, वे भाव ही हम उस समय करेंगे और तदनुसार वैसी गति में जायेंगे । यदि हमारे भविष्य में तीर्थंकर आदि पर्यायों का क्रम होगा तो हम सहज ही वैसे भाव करेंगे, अन्यथा वैसे भाव करना चाहें तो भी न कर सकेंगे। प्रश्न :- हमारे पुण्य-पाप भाव हमारी इच्छा के आधीन नहीं हैं, तो यदि हमें सप्त-व्यसन आदि के भाव आते हैं तो आने दें! उन्हें रोकने का प्रयत्न क्यों

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