Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 17
________________ क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका जब हम अपने श्रुतज्ञान में केवलज्ञान के स्वरूप का निर्णय इसप्रकार करते हैं कि वह लोकालोक को जानता है, तब लोकालोक के माध्यम से केवलज्ञान का निर्णय होने के कारण यह निर्णय पराश्रित होने से व्यवहारनय हुआ; तथा जब हम केवलज्ञान का निर्णय इसप्रकार करें कि वह अपने आत्मा को जानता है, तब यह निर्णय स्वाश्रित होने के कारण निश्चयनय हुआ। इसप्रकार श्रुतज्ञान में निश्चयनयव्यवहारनय होते हैं, केवलज्ञान या लोकालोक में नय नहीं होते। 'स्वाश्रित' और 'पराश्रित' का आशय :- निश्चयनय स्वाश्रित और व्यवहारनय पराश्रित कहा गया है। किसी भी व्यक्ति/पदार्थ का उसके स्वरूप से कथन/ज्ञान करना स्वाश्रित है तथा अन्य व्यक्ति/पदार्थ से उस व्यक्ति/पदार्थ का परिचय देना पराश्रित है। अतः स्वाश्रय या पराश्रय, पदार्थ का स्वरूप नहीं है, मात्र उसके निरूपण/ज्ञान का भेद है, इसलिए निश्चय/व्यवहारनय भी वाणी/ ज्ञान में होते हैं, पदार्थ में नहीं। ५. यहाँ स्वाश्रित और पराश्रित कथनों के कुछ प्रयोग दिए जा रहे हैं - (अ) भगवान महावीर को वीतरागी और सर्वज्ञ कहना स्वाश्रित कथन है तथा त्रिशलानंदन आदि कहना पराश्रित कथन है। (ब) पूज्य गुरुदेव का उनके दृढ़ श्रद्धान, महान व्यक्तित्व आदि से परिचय देना, स्वाश्रित कथन है तथा उन्हें सोनगढ़ के सन्त, समयसार के प्रवक्ता आदि कहना पराश्रित कथन है। (स) आत्मा को ज्ञानस्वभावी कहना स्वाश्रित कथन है, तथा मनुष्य, देव आदि कहना पराश्रित कथन है। (द) शरीर को पुद्गल/जड़ कहना स्वाश्रित कथन है, तथा पञ्चेन्द्रिय जीव आदि कहना पराश्रित कथन है। (इ) मोक्षमार्ग को वीतरागभावरूप कहना स्वाश्रित कथन है और शुभभावरूप कहना पराश्रित कथन है। क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन ६. वस्तु के अभेदरूप कथन को स्वाश्रित और गुण-पर्यायों के भेदरूप कथन को पराश्रित (सद्भूत-व्यवहार) भी कहा गया है। __इसीप्रकार केवली भगवान परद्रव्यों में तन्मय नहीं होते, फिर भी उनको ज्ञान और लोकालोक में साथ ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है - ऐसा कहना ही व्यवहारनय है, क्योंकि दो द्रव्यों में किसी भी प्रकार से सम्बन्ध स्थापित करना व्यवहार है। वस्तुतः ज्ञान को परद्रव्यों से अतन्मय अर्थात् भिन्न जानना निश्चयनय है, और उसका परद्रव्यों से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध स्थापित करना अर्थात् केवलज्ञान लोकालोक को जानता है - ऐसा जानना/कहना-असद्भूत व्यवहारनय है। श्रद्धा की अपेक्षा तन्मयता :- यहाँ श्रद्धान की अपेक्षा तन्मयता वाला अर्थ घाटित होता है। ज्ञान परद्रव्यों में यह मैं हूँ' - ऐसी श्रद्धा पूर्वक जाने, तो वह उनसे तन्मय है, और अपने को उनसे भिन्न जाने तो अतन्मय है। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि ज्ञान के ज्ञेयों के साथ जाननेरूप सम्बन्ध को व्यवहार कहा जा रहा है, केवलज्ञान पर्याय में प्रति समय अनन्त ज्ञेयों को दर्पणवत् प्रकाशित करने की सामर्थ्य को अर्थात् सर्वज्ञस्वभाव को व्यवहार नहीं कहा है। इसलिए केवली द्वारा लोकालोक को जानना व्यवहारनय से कहा जाने पर भी उनकी सर्वज्ञता पर अर्थात् क्रमबद्धपर्याय व्यवस्था पर कोई आँच नहीं आती। प्रश्न :१३. केवली भगवान व्यवहारनय से लोकालोक को जानते हैं - इस कथन का क्या आशय है? १४. केवली भगवान व्यवहारनय से लोकालोक को जानते हैं - इस कथन में व्यवहारनय कहाँ और कैसे घटित होता है? **** जिनागम के अन्य प्रमाणों से क्रमबद्धपर्याय का पोषण 18

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