Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ ३० प्रश्न : १०. भविष्य को निश्चित मानने में अज्ञानी को क्या आपत्ति है? ११. यदि भविष्य को निश्चित न माना जाए तो क्या हानि है ? अत्यन्त स्पष्ट उक्त आगम.. सर्वज्ञता के विरोध में व्यवहारनय का दुरुपयोग गद्यांश ६ क्रमबद्धपर्याय: निर्देशिका **** .बात ही कहाँ रह जाती है? (पृष्ठ १० पैरा ३ से पृष्ठ ११ पैरा ३ तक) विचार बिन्दु : १. इस गद्यांश में नियमसार गाथा १५९ और परमात्मप्रकाश अध्याय १ के पाँचवे दोहे के आधार पर सर्वज्ञता का विरोध करने वालों का उल्लेख किया गया है। उनका कहना है कि केवली भगवान लोकालोक को व्यवहारनय से जानते हैं और समयसार गाथा ११ में व्यवहारनय को अभूतार्थ बताया गया है, अतः केवली के द्वारा लोकालोक को जानना अभूतार्थ हुआ तो सर्वज्ञता भी अभूतार्थ हुई । इसप्रकार सर्वज्ञता अभूतार्थ अर्थात् असत्य सिद्ध होती है । पर उनका यह कथन भी... विचार बिन्दु : प्रश्न : १२. पूर्वपक्ष द्वारा नियमसार गाथा १५९ क्यों प्रस्तुत की गई है ? **** अज्ञानी द्वारा प्रस्तुत शंका का समाधान गद्यांश ७ -दूषण प्राप्त होगा। (पृष्ठ ११ पैरा ४ से पृष्ठ १३ पैरा ४ तक) 17 क्रमबद्धपर्याय: एक अनुशीलन १. इस गद्यांश में पूर्वपक्ष द्वारा प्रस्तुत तर्क का उत्तर दिया गया है। नियमसार गाथा के १५९ तथा परमात्मप्रकाश अध्याय १ दोहा ५ के आधार यह सिद्ध नहीं होता कि केवली भविष्य को नहीं जानते। परमात्मप्रकाश अध्याय १, गाथा ५२ की टीका में भी स्पष्ट किया गया है कि केवली भगवान पर को तन्मय होकर नहीं जानते, इसलिए व्यवहार कहा गया है, न कि उन परिज्ञान का ही अभाव होने के कारण। यदि वे पर-पदार्थों को तन्मय होकर जानने लगें तो वे स्वयं-दुखी एवं रागी-द्वेषी हो जायेंगे - यह महान दोष आएगा। ३१ २. स्वाश्रितो निश्चयः पराश्रितो व्यवहारः अर्थात् आत्माश्रितकथन निश्चय है और पराश्रित कथन व्यवहार है। केवली भगवान लोकालोक को जानते हैं, परन्तु उससे तन्मय नहीं होते इसलिए इसे व्यवहार कहा है। वे पर को जानते ही नहीं हैं ऐसा आशय कदापि नहीं है। ३. प्रवचनसार गाथा १९ की जयसेनाचार्य कृत टीका में केवली के समान ज्ञानी छद्मस्थों का भी पर को जानना व्यवहार से कहा गया है; अतः व्यवहार से जानने का अर्थ नहीं जानना लिया जाए तो ज्ञानियों द्वारा भी पर को जानना असत्य सिद्ध होगा जो कि प्रत्यक्ष विरुद्ध होगा। ४. विशेष स्पष्टीकरण :- केवली भगवान व्यवहारनय से लोकालोक को जानते हैं - इस कथन का वास्तविक आशय समझने के लिए नयों के स्वरूप पर विचार करना चाहिए। Shaज्ञान तो सकल प्रत्यक्ष ज्ञान है, अतः उसमें नय नहीं होते और लोकालोक तो ज्ञेय पदार्थ हैं, अतः उनमें भी नय नहीं होते? फिर केवली भगवान "व्यवहारनय से जानते हैं" यह कहना कैसे सम्भव है। वास्तव में व्यवहारनय केवलज्ञान या लोकालोक में नहीं है, अपितु हमारे श्रुतज्ञान में होता है । इसीप्रकार निश्चयनय भी केवलज्ञान या आत्मा में नहीं अपितु हमारे श्रुतज्ञान में होता है।

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