Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 25
________________ ४८ क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका कोई भी कार्य होता है, तब यह प्रश्न सहज उत्पन्न होता है कि यह कार्य क्यों हुआ? अज्ञानीजन निमित्तों को या ईश्वर आदि अदृश्य शक्तियों को या स्वयं को कार्य का कर्त्ता मानकर दुःखी होते हैं । जैनशासन में प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में पाँच समवायों को कारण माना गया है। यहाँ भवितव्यता की मुख्यता से उसे भी कार्य की उत्पत्ति का कारण कहा गया है। किसी कार्य की भवितव्यता अर्थात वह होना है या नहीं - यह सर्वज्ञ जानते हैं, हम नहीं, अतः विवक्षित कार्य की ही भवितव्यता थी अर्थात् यही होना था - ऐसा कहा जाएगा। तब यह प्रश्न सहज उपस्थित होता है कि यह आपने कैसे जाना कि यही होना था? तब यह कहा जाएगा कि जो यह कार्य हुआ है यही इसका प्रमाण है कि यही होना था, अर्थात् कार्य का होना ही उसकी होनहार या भवितव्यता को सिद्ध कर रहा है। अनुमान की दृष्टि से यहाँ कार्य धुएँ के स्थान पर है और भवितव्यता अग्नि के स्थान पर है। उक्त स्पष्टीकरण को निम्न घटना पर घटित करके अच्छी तरह समझा जा सकता है। २६ जनवरी, २००१ को गुजरात में भूकम्प आया था । यदि यह पूछा जाए कि भूकम्प क्यों आया? तो भवितव्यता की अपेक्षा यह कहा जाएगा कि वह तो आना ही था, इसलिए आया? पुनः प्रश्न होगा कि आप तो सर्वज्ञ नहीं हैं, फिर आप कैसे कह सकते हैं कि भूकम्प आना ही था? इसी प्रश्न का उत्तर आचार्य समन्तभद्र कार्यलिङ्ग कहकर दे रहे हैं कि भूकम्प होना स्वयं कह रहा है, कि उसे आना ही था । होनहार का भूकम्प के होने से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है। इसप्रकार भूकम्प रूपी धुआँ, उसकी भवितव्यता रूपी अग्नि का ज्ञापक हेतु अर्थात् लिङ्ग है। होनी (कार्य) ही होनहार (भवितव्यता) का ज्ञापक क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन नहीं होती, परन्तु उसका ज्ञान होता है; जबकि अग्नि जलाने पर ही धुंआ उत्पन्न हो सकता है, अग्नि के बिना नहीं। 'यह निरीह संसारी प्राणी भवितव्यता के बिना अनेक सहकारी कारणों को मिलाकर भी कार्य सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता।' इस कथन में सहकारी कारणों से आशय बाह्य निमित्तों से है। वस्तुतः अज्ञानी जीव बाह्य निमित्त मिलाने का विकल्प करता है और यदि योग्यतानुसार उन निमित्तों का संयोग हो जाए तो उपचार से ऐसा कहा जाता है कि जीव ने निमित्त मिलाए । यदि विवक्षित कार्य सम्पन्न हो जाए तो उन निमित्तों को उपचार से सहकारी कारण कहा जाता है और यदि विवक्षित कार्य न हो तो उन निमित्तों को सहकारी कारण कहने का उपचार भी लागू नहीं होता । यह बात अलग है कि जगत में कार्य न होने पर भी अनुकूल बाह्य पदार्थों को रूढ़िगत सहकारी या निमित्त कारण कहा जाता है। जैसे - सम्यग्दर्शन होने पर ही देव-शास्त्र-गुरु और उनकी श्रद्धा को सहकारी कारण कहा जा सकता है, फिर भी जगत में सामान्यरूप से देवशास्त्र-गुरु और उनकी श्रद्धा को सम्यग्दर्शन का निमित्त या सहकारी कारण कहा जाता है, चाहे किसी को सम्यग्दर्शन हो या न हो या फिर कोई अज्ञानी उनका स्वरूप विपरीत समझकर मिथ्यात्व का पोषण भी क्यों न कर लें। वेश्या के लक्ष्य से ज्ञानी वैराग्य का और अज्ञानी राग का पोषण करते हैं, फिर भी जगत में वैश्या को राग का ही निमित्त कहा जाता है, वैराग्य का नहीं और यही उचित है। पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका के अध्याय ३ के ५३वें छन्द में भी भवितव्यता वह करती है जो उसे रुचता है - ऐसा कहकर सज्जनों को मोह-राग-द्वेष का त्याग करने की प्रेरणा दी गई है। पण्डित आशाधरजी ने अध्यात्म रहस्य में कर्तृत्व का अहंकार छोड़कर भगवती भवितव्यता का आश्रय लेने की प्रेरणा दी है। यहाँ भगवती, विशेषण उसकी महानता को बताता है। यह ध्यान देने की बात है कि भवितव्यता, कार्य का उत्पादक कारण है, जबकि कार्य भवितव्यता का ज्ञापक कारण अर्थात् हेतु है। धुएँ से अग्नि उत्पन्न 26

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