Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 5
________________ क्रमबद्धपर्याय निर्देशिका उपर्युक्त पद्धति से सम्पूर्ण अनुशीलन को पढ़ाने में कम से कम १०० कालखण्ड (पीरियड) चाहिए जो शिविरों में सम्भव नहीं है। अतः लघु-शिविरों में शिक्षण के उद्देश्य से प्रश्नोत्तर - खण्ड अलग बनाया गया है। प्रश्नोत्तर खंड के भी दो भाग रखे गए हैं । (१) महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर (२) प्रासंगिक प्रश्नोत्तर । महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर में मूल विषय सम्बन्धित २८ प्रश्नोत्तर दिए गए हैं, जिनके आधार पर ८-१० दिन के शिविरों में यह विषय अच्छी तरह पढ़ाया जा सकता है। प्रासंगिक प्रश्नोत्तरों में ऐसे विषयों की चर्चा है जो पाठ्यपुस्तक में क्रमबद्धपर्याय का स्पष्टीकरण करने के लिए प्रसंगवश आ गए हैं। जैसे - त्रिलक्षण परिणाम पद्धति, अनेकान्त में अनेकान्त, पाँच समवाय आदि । यदि समय हो तो इन प्रश्नोत्तरों को भी तैयार कराना चाहिए। श्री वीतराग-विज्ञान आध्यात्मिक शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर में दोनों खण्डों के प्रश्नोत्तरों के आधार से पढ़ाया जा सकता है। ८ : यदि स्थानीय स्तर पर इसका शिक्षण दिया जाए तो सम्पूर्ण निर्देशिका के आधार पर ३-४ माह में सम्पूर्ण पाठ्य पुस्तक अच्छी तरह पढ़ाई जा सकती है। एतदर्थ आगे दिए जा रहे सामान्य निर्देशों को ध्यान में रखना आवश्यक है। इस निर्देशिका में मैंने अपने १७ वर्षों के अध्यापन का तथा ४ क्रमबद्धपर्याय शिविरों का अनुभव लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है। इसमें मेरी यही भावना है कि अधिक से अधिक लोग इसके अध्ययन-अध्यापन में सक्रिय हों। पूज्य गुरुदेवश्री भी इस विषय का विवेचन करते समय इसका निर्णय करने पर बहुत वजन देते थे। डॉ. साहब के जीवन में तो यह वरदान बनकर आया है। इसे जन-जन तक पहुँचाने के लिए सारा जीवन समर्पित करने योग्य है, क्योंकि इसके निमित्त से स्वयं का निर्णय स्पष्ट होगा, श्रद्धान दृढ़ होगा, तथा स्वभाव-सन्मुख दृष्टि करने का अवसर मिलेगा । अतः इस कार्य हेतु पक्की धुन लगाकर प्राण-प्रण से जुट जाना चाहिए। प्रथम प्रयास होने से इसमें अनेक कमियाँ होना स्वाभाविक हैं, अतः गुरुजनों एवं सुधी पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे अपने सुझावों से अवगत कराने की कृपा करें, ताकि उन पर गंभीरता से विचार करके उन्हें आगामी संस्करण में शामिल किया जा सके। इसके पश्चात् परमभाव प्रकाशक नयचक्र की निर्देशिका लिखते समय भी उन सुझावों का लाभ लिया जा सकेगा। मुझे आशा है कि इस निर्देशिका की सहायता से सभी प्रवचनकार बन्धु तथा महाविद्यालय के छात्रगण अपने-अपने गाँव में यह विषय पढ़ाकर बांटनवारे के लगे ज्यों मेंहदी को रंग - यह सूक्ति चरितार्थ करते हुए अपने श्रुतज्ञान में सर्वज्ञता की प्रतिष्ठा करके स्वयं सर्वज्ञ बनने के पथ पर चल पड़ेंगे। इति शुभं भूयात् । - - अभयकुमार जैन एम. काम., जैनदर्शनाचार्य मङ्गलाचरण (क्रमबद्धपर्याय (दोहा) क्रमनियमित क्रमबद्ध है, जग की सब पर्याय । निर्णय हो सर्वज्ञ का, दृष्टि निज में आय ।। (e) सकल द्रव्य के गुण अरु पर्यायों को जाने केवलज्ञान । मानो उसमें डूब गये हों किन्तु न छूता उन्हें सुजान ।। जब जिसका जिसमें जिस थल में जिस विधि से होना जो कार्य । तब उसका उसमें उस थल में उस विधि से होता वह कार्य ।। जन्म-मरण हो या सुख-दुःख हो अथवा हो संयोग-वियोग । जैसे जाने हैं जिनवर ने वैसे ही सब होने योग्य ।। कोई न उनका कर्त्ता हर्त्ता उनका होना वस्तु स्वभाव । ज्ञान- कला में ज्ञेय झलकते किन्तु नहीं उसमें परभाव ।। अतः नहीं मैं पर का कर्त्ता और न पर में मेरा कार्य । सहज, स्वयं, निज क्रम से होती है मुझमें मेरी पर्याय ।। पर्यायों से दृष्टि पलटती भासित हो ज्ञायक भगवान । वस्तु स्वरूप बताया तुमने शत-शत वन्दन गुरु कहान ।।

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