Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 3
________________ क्या? कहाँ? गद्यांश १४ - भवितव्यता के आधार से कर्त्तव्य का निषेध ४५ गद्यांश १५ - रागी जीव भी पर पदार्थ के परिणमन का कर्त्ता नहीं है गद्यांश १६ - पर-पदार्थों के परिणमन की चिंता करना व्यर्थ है। गद्यांश १७ - जैन-दर्शन का अकर्त्तावाद गद्यांश १८ - परिणमन करना वस्तु का सहज स्वभाव है। गद्यांश १९ - अज्ञानी की विपरीत मान्यता गद्यांश २० - ज्ञान का परिणमन भी इच्छाधीन नहीं है। गद्यांश २१ - प्रत्येक पर्याय स्वकाल में सत् है। गद्यांश २२ - क्रमबद्धपर्याय, एकांत नियतिवाद और पुरुषार्थ गद्यांश २३ - पाँच समवाय गद्यांश २४ - अनेकान्त में भी अनेकान्त गद्यांश २५ - एकांत, अनेकान्त और क्रमबद्धपर्याय गद्यांश २६ - क्रमबद्धपर्याय सार्वभौमिक सत्य है। गद्यांश २७ - पुरुषार्थ एवं अन्य समवायों का सुमेल गद्यांश २८ - क्रमबद्धपर्याय और पुरुषार्थ गद्यांश २९ - सर्वज्ञता की श्रद्धा गद्यांश ३० - सर्वज्ञता के निर्णय की अनिवार्यता गद्यांश ३१ - अव्यवस्थित मति और स्वचलित व्यवस्था अध्याय -३ ९. क्रमबद्धपर्याय : कुछ प्रश्नोत्तर अध्याय-४ १०. क्रमबद्धपर्याय : महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर अध्याय-५ ११. क्रमबद्धपर्याय : प्रासंगिक प्रश्नोत्तर ११२ १२. क्रमबद्धपर्याय : आदर्श प्रश्नोत्तर १२७ प्रकाशकीय वीतरागी देव-गुरु-धर्म एवं आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी के प्रति अगाध श्रद्धा सम्पन्न पण्डित अभयकुमारजी शास्त्री द्वारा लिखित यह क्रमबद्धपर्याय-निर्देशिका प्रकाशित करते हुए हम अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं। इस निर्देशिका का स्वरूप और इसकी उपयोगिता के सन्दर्भ में उन्होंने 'अहो भाग्य' में अपने विचार व्यक्त कर दिये हैं, जिन्हें यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं है। पण्डित अभयकुमारजी को लघुवय से ही पूज्य गुरुदेवश्री एवं डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। धनार्जन हेतु व्यापार आदि से विमुख होकर उन्होंने अपना सारा जीवन आध्यात्मिक चिन्तन-मनन, अध्ययन-अध्यापन एवं लेखन आदि में समर्पित किया है। उनके द्वारा लिखी गई अपने ढंग की यह अपूर्व कृति निश्चित रूप से समाज को लाभदायक होगी - इसमें कोई सन्देह नहीं है। जुलाई १९९८ से प्रारम्भ छिन्दवाड़ा प्रवास के पश्चात उनके द्वारा रचित आत्मानुशासन पद्यानुवाद, लघुतत्त्व स्फोट पद्यानुवाद, नियमसार कलश पद्यानुवाद तथा भक्ति गीतों के १२ कैसेटों से समाज लाभान्वित हो ही रहा है। एतदर्थ हम उनके विशेष आभारी हैं। ___ इसकी प्रकाशन व्यवस्था का दायित्व सम्हालने के लिए श्रीमान अखिल बंसल जयपुर भी धन्यवाद के पात्र हैं। हमें आशा है, सभी लोग इस कृति के माध्यम से क्रमबद्धपर्याय का मर्म समझकर पर-पदार्थों और पर्यायों के कर्त्तत्व से रहित होकर अकर्ता ज्ञायक स्वभाव की अनुभूति की ओर अग्रसर होंगे। ब्र. यशपाल जैन, एम.ए., जयपुर प्रकाशन मंत्री पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट

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