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चर्चापत्र.
[जेसिंग - सांकलचंद के लेखकाजवाब - 1
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(जैनश्वेतांबर धर्मोपदेष्टा - विद्यासागर - न्यायरत्नमहाराज - शांतिविजयजी तर्फसे, - )
सन (१९१५) - अगटके जैनशासन अखबार में - जेसिंग-सांकलचंदने मेरे संबंधमें जोकुछलिखा है, उसका जवाब इसमें देताहुं सुनिये !
१ - अपने लेखकी शुरुआत में जेसिंग - सांकलचंद लिखते है, हुंमुजरातनों समौगामनो रहनार मुजरातना रहनार माणसने साधुनिराजना व्यवहारनो अनुभव वीजादेशो वालाकरतां वधारेहोय-एस्वाभाविक छे, थोडा महिना थयां-हुं-अत्रे धुलियेरहुंलुं.
( जवाब . ) जैनमुनिके व्यवहारका अनुभव जहांजहां जैनमुनि विचरते है, वहांके भाव कोकों होता है, - सिर्फ ! एकदेश के श्रावकोकों होवे असा नियमनही, मुल्कमारवाड - पंजाब - राजपुताना - बंगाल - मध्यप्रदेश- वराड - खानदेश- मालवा - और दखनके श्रावकलो कभी जैनमुनिके व्यवहारसें अछी तरह जानकार है, -
२ – आगे जेसिंग - सांकलचंद बयानकरते है, शांतिविजयजी संवेगी साधुकहरावी - ते माफिकवरतणुक करतानथी, ते जोइ मने आश्चर्य लाग्यं, परंतु गुजराततर्कनो-हूँ- एकलो होवाथी मने बोलतां अटकाव थवा मांडयो,
( जवाब . ) सच कहने में अटकाव क्यौंहुवा ? और किसने किया ? शहरधुलिये में तुम खुद मेरीव्याख्यानसभा में धर्मशास्त्रसुनने को - आतेथे, अगर मेरा बरताव मुनिधर्मसे विरुद्धथा तो क्यौं आतेथे ? इसका जवाबदो, क्या! उसवरून - में - इरादेधर्मके रैलमें नही - बेठताथा ?