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भूमिका
प्राचीन भारत के इतिहास और सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रख्यात चेदि राजवंश की प्रतिष्ठा कलिङ्ग में महामेघवाहन वंश के नाम से ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी तक हो चुकी थी। बहुधा जैन धर्म के प्रधान पृष्ठपोषक होने के कारण इस वंश के राजाओं का यश जैन साहित्य में विशेष रूपसे कीर्तित हुआ है। महाभारत, बौद्ध चेतीय जातक तथा अन्य पुराणों मे भी इस वंश का विवरणी पाया जाता है। कलिङ्ग में खारवेळ इस राजवंश के सर्वश्रेष्ठ शासक माने जाते हैं। यह भी तात्पर्यपूर्ण है कि भारतवर्ष में वे ही महाराजा-पद-विभूषित सर्व प्रथम सम्राट हैं और उनकी प्रथम महिषी के मंचपुरी-गुम्फा-अभिलेख में उन्हें चक्रवर्ती के रूप में अभिहित किया गया है। दस वर्ष के शासन काल में खारवेळ ने जो सामरिक सफलता पायी थी उसके समकक्ष दृष्टांत भारत के इतिहास में दृष्टिगोचर नहीं होता। उनके शासन काल में कलिङ्ग समग्र भारतवर्ष में अद्वितीय और अजेय शक्ति के रूप में विवेचित हुआ तथा अपने राजनैतिक प्रभाव को हिमालय से कुमारिका, पूर्व सागर से पश्चिय पयोधि तक व्याप्त कर सका था। शासक के रूप में उनकी मानविकता, कला और संस्कृति के प्रति प्रगाढ अनुराग, उदार धर्म-नीति और अध्यात्मिकता के कारण इतिहास में उन्हें विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ है।
यह निश्चित है कि प्राचीन काल में कलिङ्ग उत्तर में गंगा से दक्षिण में गोदावरी तक सुविस्तृत था। ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में मगध सम्राट महापद्म नंद की विजय के फलस्वरूप समग्र कलिङ्ग, नंद साम्राज्य में सम्मिलित हो चुका था। परंतु महापद्म नंद के पश्चात गंगारिडाइ (कलिङ्ग का उत्तरांश) के अलावा अन्य सभी क्षेत्र नंद साम्राज्य की अधीनता से मुक्त हो गये। ग्रीक इतिहासकारों के
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