Book Title: Kharvel
Author(s): Sadanand Agarwal, Shrinivas Udagata
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 66
________________ में रथ, गाड़ियां, नाव आदि का निर्माण होता था । खारवेळ की अभूतपूर्व सामरिक सफलता और उदयगिरि- खण्डगिरि में अंकित अस्त्र-शस्त्रों से यह भी निश्चित हो जाता है कि उस समय कलिंग में शस्त्रास्त्रों का निर्माण भी होता था । कृषि के अतिरिक्त पशुपालन भी एक उन्नत व्यवसाय था । उन समसामयिक चित्रों में पुरूषों का हिरन, सिंह, व्याघ्रादि आखेट तथा वृषभ अश्वादि के साथ लडाई के दृश्य भी हैं। विभिन्न जानवरों और पुरूषों के साथ लड़ाई करती नारियों के चित्र भी हैं। मानों कलिंग के नर-नारियों के वीरत्व और साहस के प्रदर्शन की इच्छा से तब के कलाकारों ने ये चित्र बनाए थे। नाट्य-कला का पृष्ठपोषक खारवेळ हाथीगुम्फा अभिलेख में खारवेळ को गंधर्ववेद - विशारद ( गंधव वेद बुधो ) कहाजाना तात्पर्यपूर्ण है। महाक्षत्रप राजा ने भी अपने जुनागड़ शिलालेख में ( शकाब्द ७२ ई. १५० ) भी उन्हें अन्य विद्याओं के अतिरिक्त गांधर्व विद्या में निपुण बतलाया है। ई. चौथी सदी में गुप्तवंशी राजा समुद्रगुप्त के इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख में वर्णित है कि वे [ समुद्रगुप्त ] गांधर्व विद्या में पारंगत थे। उन्होंने प्रभूत ज्ञानार्जन कर वृहस्पति, तुम्बुरू, नारद सरीखे संगीत विशारदों को नीचा दिखाने में समर्थ हुए थे : " गंन्धर्ब ललितै व्रीडित त्रिदशपति तुम्मुरू नारदा...' मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि भारतवर्ष में खारवेळ के पूर्व अन्य किसी भी राजाने स्वयं के द्वारा उद्घोषित किसी भी अभिलेख में स्वयं को गांधर्व विद्या- प्रवीण नहीं बताया है। भरत मुनि के नाट्य शास्त्र [ ई. प्रथम - तृतीय शताब्दी ] के पहले भारत में " गांधर्व वेद" नामक एक ग्रंथ का प्रचलन था । यह निःसंदेह कहा जा सकता है। पर अब वह महान ग्रंथ अप्राप्य है। Jain Education International = ४८ For Private & Personal Use Only "" www.jainelibrary.org

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