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है कि अपने राजत्व के पांचवें वर्ष में राजा उद्योत केशरी ने कुमार पर्वत [खण्डगिरि] के कतिपय मंदिर और सरोवरों का जीर्णोध्दार करवाया था। वहाँ चतुर्विंश जैन तीर्थंकर की प्रतिमा के साथ-साथ श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी करवायी गयी थी। पूजा आराधना के लिये यशनंदि नामक एक जैन आचार्य भी वहां नियोजित हए थे। शिलालेख की भाषा संस्कत है फिर भी उसमें कहीं-कहीं प्राकृत शब्दों का प्रयोग हुआ है। पाठकों की जानकारी के लिये उस शिलालेख का संपूर्ण पाठ नीचे प्रदत्त है:
__ "उँ श्रीउद्योतकेशरी विजयराज्य सम्बत ५
श्री कुमार पव्वत स्थाने जिन्न वापि जिन्न इसण उद्योतित तस्मिन थाने चतुर्विसति तिर्थंकर स्थापित प्रतिष्ठा काले हरिओप जसनंदिक
__ **** श्री पारस्यनाथस्य कर्म खयः
नव मुनि गुम्फा अभिलेख इनके राजत्व के अठारहवें वर्ष में उत्कीर्णित हुआ था। आचार्य कुलचंद्र के शिष्य जैन मुनि शुभचंद्र इस गुम्फा के निर्माता थे, यह उसी अभिलेख ही से ज्ञात हो जाता है:
“उँ श्रीमदुद्योतकेशरीदेवस्य प्रवदमाने विजयराज्ये संबत १८ श्रीआर्यसंघ प्रतिवद्ध ग्रहकुल विनिर्गत देशीगण _ आचार्य श्री कुलचंद्रभट्टारकस्य शिष्य सुभचंद्रस्य।"
स्थूलत: इतना ही कहा जा सकता है कि ओडिशा मे सोमवंशी राजत्व काल तक जैन धर्म को राज-पृष्ठपोषकता प्राप्त होती रही थी और ई.बारहवीं सदी के बाद किसी और राजवंश से सहायता प्राप्त होकर इस धर्म का कोई विकास हआ हो, ज्ञात नहीं होता।
ओडिशा के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त जैन अवशेषों से अनुमान लगाया जाता है कि ब्राह्मण धर्म के साथ यह धर्म भी बना रहा था।
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