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भूमिका
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अनन्त चतुष्टय विराजित आत्मा अपने विशुद्ध रूप से अरूपी और अनामी है, परन्तु देहधारी होने से उसकी पहचान के लिए नामस्थापन जनिवार्य है । चार प्रकार के निक्षेपों में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव है । ये अकाट्य सत्य माने गये हैं । अनादि काल से नाम रखने की परिपाटी चली आ रही है । भगवान ऋषभदेव की माता ने उनके गर्भ में आने पर वृषभ स्वप्न के अनुसार उनका नामकरण किया, क्योंकि चतुर्दश महास्वप्नों में प्रथम वृषभ का स्वप्न ही मरुदेवी माता ने देखा था । तीर्थंकरों के नाम भी घटनाओं के परिवेशों में रखे गये थे, जैसे महामारी शांत होने से शान्तिनाथ, ऋद्धि-सम्पदा में वृद्धि होने से वर्द्धमान इत्यादि । कुछ नाम प्रकृति से, कुछ संस्कृति से, कुछ घटना विशेष से एवं कुछ परम्परागत देशप्रथा आदि से सम्बन्धित होते थे जन्म समय के ग्रहनक्षत्रों की अवस्थिति भी इसमें प्राधान्य रखती थी । पाणिनी ने अष्टाध्यायी में नाम व पद आदि के सम्बन्ध में विशद विवेचन किया है । अपने-अपने देश की भाषा, धर्म और जातिगत प्रथा, कालानुरूप संघप्रणाली देखते हुए आर्य, मुनि, स्थविर, गणि आदि उपाधि - सम्बोधन होता था। पहले जो प्राकृत भाषा के नामरूप थे वे उनके संस्कृत रूपों में प्रयुक्त होने लगे । फिर जब अपभ्रंश काल आया तो शब्दों में तदनुरूप परिवर्तन आ गया । व्यक्तियों के नामों में नागभट्ट को बोलचाल की भाषा में नाहड़, देवभट्ट को देहड़, वाग्भट्ट -बाहड़, त्यागभट - चाहड़, क्षेमंधरखींवड, पृथ्वीधर - पेथड़, जसहड़ आदि में उत्तरार्थ लुप्त होकर ड़' और 'ण' प्रत्यय लग गये, जैसे- जाल्हण, कर्मण, आह्लादन का आल्हण, प्रह्लादन का पाल्हण आदि संख्याबद्ध उदाहरण दिये जा सकते हैं । आचार्यों के नाम भी वक्कसूरि, नन्नसूरि, जज्जिगसूरि आदि भी अपभ्रंश काल की देन है ।
आज के परिवेश में नाम के आदि पद उपर्युक्त प्रथा के साथ-साथ नामान्त में जैसे राजस्थान में लाल, चन्द, राज, मल्ल, दान, सिंह, करण,
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