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'युगप्रधान श्री जिन चन्द्रसूरि' ग्रन्थ के पृष्ठ २५९-६१ में प्रकाशित को है । यह सूचो हमें उनके दो विहार-पत्रों में जिसमें संवतानुक्रम से चातुर्मास और विशिष्ट घटनाओं के संक्षिप्त उल्लेख सहित उपलब्ध हुई थी दीक्षा समय एक साथ जितने भी मुनियों की दोक्षा हो, उन सब का नामान्त पद एक साथ ही रक्खा जाय, यह परिपाटी बहुत ही महत्वपूर्ण है । इतः पूर्व यह अनिवार्य नहीं हो रहा होगा । इस महत्वपूर्ण प्रथा से उस समय के अधिकांश मुनियों की दीक्षा का अनुक्रम नन्दी अनुक्रम से प्राप्त हो जाने से हमें तत्कालीन विद्वानों व शिष्यों का इस वैज्ञानिक पद्धति से सम्पादन करने में बड़ी सुविधा हो गई थी। जैसे गुणविनय और समयसुन्दर दोनों समकालीन मूर्धन्य विद्वान् थे, पर दीक्षा पर्याय में कौन छोटा-बड़ा था ? यह जानने के लिए नन्दी अनुक्रम का सहारा परम उपयोगी सिद्ध हुआ । इसके अनुसार हम कह सकते हैं कि गुणविनय की दीक्षा प्रथम हुई थी क्योंकि उनको विनय नन्दी का क्रमांक ८ वां है और सुन्दर नन्दी का क्रमांक २० वां है ।
उपर्युक्त नन्दी प्रथा से आकृष्ट होकर हमने विकीर्ण पत्रों में, पृष्ठे-टिप्पणिका, हर्ष-टिप्पणिका आदि में इसकी विशेष शोध की । श्रीपूज्यों के दफ्तर तो इसके विशेष आकर हैं । पीछे के दफ्तरों को देखने से पता चलता है कि एक नन्दि ( नामान्त - पद ) एक साथ दीक्षत मुनियों के लिए एक ही बार व्यवहृत न होकर कई बार दीक्षाएँ दिये जाने पर भी चलती रहती थी अर्थात् 'चन्द्र' नन्दी चालु की और उसमें अधिक दीक्षाएँ नहीं हुई तो एक दो वर्ष चल सकती है अथवा निधन जैसी दुर्घटना या दीक्षा नाम स्थापन में गुरु-शिष्य के नाम, मुहूर्त - राशि आदि प्रतिकूल बैठ जाने से नन्दि बदली जाती थी, अन्यथा गच्छनायक की इच्छा और लाभालाभ के हिसाब से लम्बे समय तक भी चल सकती थी ।
६. युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी से अब तक तो खरतरगच्छ में एक और विशेष प्रणाली देखी जाती है कि पट्टधर आचार्य का नामान्त पद जो होगा, सर्वप्रथम वही नन्दी स्थापन की जायगी। जैसे जिनचन्द्रसूरि जी जब पहले-पहल मुनियों को दीक्षा देंगे तो उनका नामान्त पद भी अपने नामान्त पदानुसार 'चन्द्र' ही रखेंगे । उनके प्रथम शिष्य सकलचन्द्र
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