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गणि थे। इसी प्रकार जिनसुखसूरि पहले 'सुख' नन्दि, जिनलाभसूरिजी 'लाभ' नन्दि, जिनभक्तिसूरिजी 'भक्ति' नन्दि ही सर्वप्रथम रखेंगे । अर्थात् नव दीक्षित मुनियों का नामान्त पद सर्व प्रथम अनिवार्य रूप से बही
रखा जायगा 1
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७. खरतरगच्छ में समाचारी मर्यादा प्रवर्तक आचार्य श्री जिनपति सूरिजी ने दफ्तर - इतिहास या डायरी रखने की बहुत ही सुन्दर और उपयोगी परिपाटी प्रचलित की थी। ऐसी दफ्तर बही में जिस संवत् मिती में जिन्हें दीक्षित किया एवं सूरिपद, उपाध्यायपदादि दिये उसकी पूरी नामावली लिख लेते थे। जहां-जहां विचरते थे वहां की प्रतिष्ठा, संघ-यात्रा आदि महत्पूर्ण कार्यों एवं घटनाओं का उल्लेख उसमें अवश्य किया जाता एवं विशिष्ट श्रावकों के नाम, परिचय, भक्तिकार्यादि का विवरण लिखा जाता रहा । जैसलमेर भण्डार की प्राचीन सूची में एक ऐसी ३५० पत्रों की प्रति होने का उल्लेख देखा था पर वह अनुपलब्ध है । खरतरगच्छ अनेक शाखाओं में विभक्त हो गया और वे शाखाएँ नाम शेष हो गईं एवं जो सामग्री थी, नष्ट हो गई । यदि वह सामग्री उपलब्ध होती तो खरतरगच्छ का ऐसा सर्वांगपूर्ण व्यवस्थित इतिहास तैयार होता, जैसा शायद ही किसी गच्छ का हो । भारतीय इतिहास में ये दफ्तर- इतिहास, गुर्वावली, ख्यात आदि अत्यन्त मूल्यवान सामग्री है । हमें सर्व प्रथम दफ्तर जिसका नाम 'युगप्रधान चाय गुर्वावली' है, सं० १३९३ तक का उसमें विवरण उपलब्ध है । इसके बाद सं० १७०७ से वर्तमान तक का परवर्ती दफ्तर संप्राप्त है । मध्यकालीन जिनभद्रसूरिजी और यु० श्री जिनचन्द्रसूरिजी के समप्र के ३०० वर्षों का दफ्तर मिल जाता तो सर्वांगपूर्ण इतिहास तैयार करने में हम सक्षम होते । यदि किसी ज्ञान भण्डार में, बिना सूची के अटाले में सौभाग्यवश मिल जाय तो उसकी पूर्णतया शोध होना आवश्यक है ।
सं० ० १७०७ से वर्तमान तक का एक दफ्तर जयपुर गद्दी के श्री पूज्य श्री जिनधरणेंद्रसूरिजी तक का उपलब्ध है जिसमें अनेकशः पुराने दफ्तर से उद्धृत करने का जिक्र है । यद्यपि वह इतना व्यवस्थित नहीं है फिर भी उसमें राजस्थान, गुजरात के सैकड़ों गांवों और वहां के श्रावकों का उल्लेख है जो मूल्यवान सामग्री है। इसी प्रकार खरतर
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