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संगृहीत है । यह सम्पूर्णतया नहीं पर खण्ड खण्ड में उपलब्ध है । प्रथम खण्ड गणधर सार्द्ध शतक वृत्ति के आधार पर श्री वर्द्धमानसूरि से जिनदत्तसूरि तक है। उस समय हजारों दीक्षाएँ सम्पन्न हुई थीं पर थोड़े से नाम उपलब्ध हुए। दूसरा खण्ड जिनपालोपाध्याय द्वारा सं० १३०५ में दिल्ली निवासो सेठ साहुनी सुन हेमा की अभ्यर्थना से रवित है । बाद में सं० १३९३ तक पुगप्रधान गच्छनायकों के साथ वाले प्रामाणिक मुनियों द्वारा दैनंदिनी की भांति संकलित है। युगप्रधानाचार्य गुर्वावलो ही एतद्विषयक विश्व साहित्य का अजोड़ ग्रन्थ है । बाद को दीक्षाएँ विज्ञप्ति महालेख और रास- चौपई आदि के आधार से व पट्टावलियों में प्राप्त सामग्री पर प्रावृत है। अकबर प्रतिबोधक चतुर्थ दादा श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने जिनका साधु संघ दो हजार के लगभग था, ४४ नन्दियों में दीक्षा दी थी ।
नन्दी शब्द महाकल्याणकारी है, भगवान के चौमुख समवशरण के सम्मुख दीक्षा, व्रत- ग्रहण आदि क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं इसी से नामान्त पद को नन्दी कहते हैं । समवशरण त्रिगड़े पर 'नन्दी मण्डाण' कहलाता है । गुजरात में बिचरते खरतरगच्छ के ४० आचार्यों को संघ यात्रा से पाटण लौटने पर वस्त्र द्वारा सम्मानित करने का उल्लेख मिलता है । जिनकुशलसूरि पट्टाभिषेक रास में ७०० साधु और २४०० साध्वियां होने का उल्लेख है । जिनदत्तसरिजी ने जहां हजारों दीक्षाएँ दीं और लक्षाधिक नव्य जैन बनाये । जैसलमेर भण्डार में ३५० पत्रों का इतिहास था जो अप्राप्त है । खरतरगच्छीय विद्वानों द्वारा साहित्य निर्माण बहुत बड़ी संख्या में हुआ । सरक्षण न मिलने से बहुत साहित्य अप्राप्त हो गया । गन्थों की पुष्पिकाओं और प्रशस्तियों व अभिलेखों का संग्रह किया जाय तो उसमें बहुत सा इतिहास उपलब्ध हो सकता है ।
पर्वाचार्य सभी पंच महाव्रतधारी और परिग्रह त्यागो थे, इधर १५०-२०० वर्षों में आचार - शैथिल्य बढ़ा और क्रमशः नामशेष हो रहे हैं। बीकानेर और जयपुर के अतिरिक्त ३५० वर्ष से प्राचीन इतिहास तो सर्वथा अनुपलब्ध है । श्री जिनधरणेन्द्रसूरिजी के प्राप्त दफ्तर से सं० १७०७ से दीक्षा नदी सूची प्राप्त हुई जो दूसरे खण्ड में दे दी गई है ।
- भँवरलाल नाहटा
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