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खरतर-गच्छ दीक्षा नन्दी सूची
२६ सी थे। सं० १६५६ मिगसर सुदि १३ को श्री जिनसिंहसूरि जी के पास 'राजसिंह' नाम से दीक्षित हुए। बड़ी दीक्षा श्रीजिनचन्द्रसूरि ने दी, राजसमुद्र नाम रखा गया। श्रीजिनचन्द्रसूरि जी ने इन्हें आसाउली में वाचनाचार्य पद दिया था। सं० १६७४ मिती फाल्गुन सुदि७ को मेड़ता में आसकरण चोपड़ा कारित नान्द महोत्सव से पूर्णिमापक्षीय हेमाचार्य प्रदत्त सूरिमंत्र से अपने गुरु भ्राता सिद्धसेन के साथ आप भट्टारक श्री जिनराजसूरि और सिद्धसेन आचार्य श्रीजिनसागरसूरि बने । बारह वर्ष इनकी आज्ञा में रह कर श्रीजिनसागरसूरि से लघु आचार्य शाखा अलग हुई। आपने ६मुनियों को उपाध्याय पद, ४१ को वाचक पद एवं एक साध्वी को प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया था।
सं० १६७८ में फाल्गुन कृष्ण ७ को रंगविजय जी को दीक्षित किया और उन्हें उपाध्याय पद से भी विभूषित आपने ही किया था। सं० १७०० के चातुर्मास हेतु पाटण पधारे और जिनरत्नसूरि को अपने पट्ट पर स्थापित कर आषाढ़ सुदि ६ को स्वर्ग सिधारे। श्री जिनचंद्रसूरि के अधिकांश शिष्य जिनसागरसूरि जी के आज्ञानुवर्ती रहे। जिनरत्नसूरि
ये सेरुणा निवासी लूणिया गोत्रीय तिलोकसी-तारादेवी के पुत्र थेरतनसी और सं. १६७० में जन्मे तेजलदे के पुत्र रूपचंद । पिता का देहान्त होजाने पर १६ वर्षीय रतनसी के साथ बीकानेर में माता ने दीक्षा ली । रूपचंद्र उस समय आठ वर्ष के थे, श्रीविमलकीर्ति गणि के पास विद्याध्ययन कर १४ वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए अर्थात् सं० १६८४ वै० सु० ३ को दीक्षा ली। श्री जिनराजसूरि जी ने बड़ी दीक्षा देकर रत्नसोम नाम प्रसिद्ध किया। बाद में अहमदाबाद में बुलाकर उपाध्याय पद दिया। सं० १७०० आषाढ़ सुदि ७ को अपने पट्ट पर स्थापित किया । संघआग्रह से सं. १७०४ से १७०७ तक जैसलमेर विराजे । फिर तीन चातुर्मास आगरा में किये। सं० १७११ श्रावण वदि ७ को अपने पट्ट पर 'हर्षलाभ' को अभिषिक्त करने की आज्ञा दे स्वर्ग सिधारे।
____ सं० १७०७ बैशाख सुदि ३ जैसलमेर से 'लाभ नंदि' में जो दीक्षाएं दी, सूची उपलब्ध है जो प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रकाशित की जा रही है।
जिनराजसरि जी ने 'विजय' नंदी में रंगविजय जी को सं० १६७८ फाल्गुन कृ० ६ को दीक्षित किया था। उसी नंदि में मानविजय, रामविजय, राजविजय, कल्याणविजय, चारित्रविजय, आदि कोभी। 'हर्ष' नंदि में शांतिहर्ष, साधुहर्ष, सहजहर्ष, मतिहर्ष, ज्ञानहर्ष, राजहर्ष, उदयहर्ष, विवेकहर्ष,
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