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हो रही है। खरतरगच्छीय मुनियों में अभी एक शताब्दी से उन प्राचीन परिपाटियों/प्रणालियों का व्यवहार बन्द हो गया है। अब उनमें केवल 'सागर' नन्दी और श्री मोहनलालजी महाराज के समुदाय में 'मुनि' एवं साध्वियों में "श्री" नामान्त पद ही रूढ़ हो गया है। गुरु-शिष्यों का एक ही नामान्त पद हो जाने से उतना सौष्ठव नहीं रहा। साध्वियों के नाम व दीक्षा आदि का विवरण जेयपुर श्रीपूज्य जी के दफ्तर में सं० १७८३ से उपलब्ध है । त्याग-वैराग्यमय परम्परा शिथिल होते, यतिनी-साध्वी परम्परा का नामशेष होना अनिवार्य था। संवेगी परम्परा में वे परिपाटियां तो शेष हो गईं पर जिन शासन की उन्नति एवं शासन-प्रभावना में चार चांद लग गये।
हमारे ऐतिहासिक परिशीलन में गत पचास वर्षों में खरतरगच्छीय दृष्टिकोण से जो देखा, अनुभव किया वही ऊपर लिखा गया है। इसी प्रकार अन्य विद्वानों को अन्य गन्था के नामान्त पद सम्बन्धी विशेष परिपाटियों का अनुसन्धान कर उन पर प्रकाश डालना अपेक्षित है। आशा है इस ओर विद्वद्गण ध्यान देकर इतिहास के बन्द पृष्ठों को खोलने का प्रयास करेंगे।
खम्भात में आयोजित श्री महावीर विद्यालय, बम्बई द्वारा जन साहित्य समारोह के छठे अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण के रूप में प्रस्तुत निबन्ध पढ़ा गया था जा प्रस्तुत ग्रन्थ की भूमिका स्वरूप था। वस्तुतः यह विषय अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आत्मा के उत्थान/ऊर्वीकरण हेतु संयम मार्ग में दीक्षित होना अनिवार्य है। यह आत्मोत्थान की नींव है, आस्म साधना. साहित्य-निर्माण, तीर्थ-मन्दिरों की प्रतिष्ठा, तपश्चरण, सघ-यात्रा एवं जानतिक जीवन को ऊंचा उठाने, धर्म मार्ग में लगाने आदि समस्त सत्कार्यों की स्व-पर-कल्याण कर्तृ संयम माग का प्रवेश द्वार दीक्षा है। गत एक हजार वर्षों में जो चेत्यवास को निरसन कर आध्यात्मिक क्रान्ति आयी और सुविहित माग/खरतरगच्छ मे दीक्षित हुए उनका आंशिक लेखा-जोखा इस ग्रंथ में संगृहीत किया गया है।
खरतरगच्छ एक महान गच्छ है जिसकी बारह शाखाओं का इतिहास लुप्त है, शाखाएँ नाम शेष हो गई उनके क्रमिक इतिहास के दफ्तर भो अप्राप्त हैं। वर्तमान में जितना भी उपलब्ध है, इस ग्रन्थ में
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