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पद पाये जाते हैं। जबकि प्राचीन इतिहास में इनके अतिरिक्त बहुसंख्यक नामान्त पद व्यवहृत देखने में आते हैं। हमें इस निबन्ध में इन न मान्त पद जिन्हें नन्दी कहा जाता है उस पर विस्तार से विचार करना है।
____ इस प्रकार के नाम परिवर्तन की प्रथा भारत और यूरोप आदि देशों के राज्यतन्त्र में भी पायी जाती है, पर दीक्षान्तर नाम परिवर्तन की प्रथा वैदिक सम्प्रदाय में भी प्राप्त है। 'दर्शनप्रकाश' नामक ग्रन्थ में संन्यासियों के दस प्रकार के नामों का उल्लेख संप्राप्त है। यतः
१. गिरि-सदाशिव, २. पर्वत-पुरुष, ३. सागर-शक्ति, ४. वन-रुद्र,
५. अरिण-ॐकार ६. तीर्थ-ब्रह्म ७. आगम-विष्ण, ८. मठ-शिव, ९. पुरी-अक्षर, १०. भारती-परब्रह्म ।।
'भारत का धार्मिक इतिहास' ग्रन्थ के पृष्ठ १८० में दस नामान्त. पद इस प्रकार बतलाये हैं
१. गिरि २. पुरी ३ भारतो ४. सागर ५. आश्रम ६. पर्वत ७. तीर्थ ८. सरस्वती ९. व्रत १०. आचार्य ।
श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों में नामकरण विधि का सबसे प्राचीन विशद और स्पष्ट उल्लेख खरतरगच्छ की रुद्रपल्लीय शाखा के आचार्य श्री वर्धमानसूरिजी रचित 'आचारदिनकर' नामक ग्रन्थ में विस्तार के साथ मिलता है जो वि० सं० १४६८ कार्तिक शुक्ल १५ को जालंधर देश (पंजाब) के नन्दवनपुर (नांदौन) में विरचित है। इस नाम परिवर्तन का कारण बतलाते हुए लिखा है कि -
पूर्वं हि जैन साधुत्वे सूरित्वेऽपि समागते। न नाम्ना परिवर्तोभून्मुनीनां मोक्षगामिनाम् ॥६॥ साम्प्रतं गच्छ संयोगः क्रियते वृद्धिहेतवे । महास्नेहायायुषे च लाभाय गुरुशिष्ययोः ॥ ७ ॥ ततस्तेन कारणेन नाम राश्यनुसारितः। गुरुः प्रधानतां नीत्वा विनयेनानुकीर्तयेत् ।। ८ ।।
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