Book Title: Karmarth Sutram
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 32
________________ ૫ सार्गणाने मिषे पर्याप्त यि अने अपर्याप्तमंशिपंचेंद्रिय बे जीवना भेद होय छे । ५१. नरे सास पर्याप्तौ । मनुष्धतिमार्मणामां असंही अर्थास सहित से (बे) एटले पंचेंद्रिय संधि पर्यापतो अने अपर्याप्तो तथा अभिपर्याप्तो एम ऋण जीवना भेद होय छे । ५२. तेजस्यां सवादरापर्याप्तौ । तेजोलेश्यामां बापकेंद्रिय अपर्याप्तसहित ते (ये) पटले संशि पर्याप्तो अने अपर्याप्तो तथा बादर एकेंद्रिय अपर्याप्त प त्रण जमाना मेद्र होय छे । ५३. स्थावरे एकेन्द्रिये प्रथमानि चत्वारि | (पांच) स्थावर कामां अने एकेंद्रियज्ञातिमा पहेला चार जीवस्थान होय, ते आ-सूक्ष्मपर्याप्तो अने अपर्याप्तो तथा बादर पर्याप्तो अने अपर्याप्तो । ५४. असञ्ज्ञिनि प्रथमानि द्वादश । असशिमां पहेला बार (संज्ञि पर्याप्तो भने अपर्याप्तो ए ये वर्जी) जीवस्थान होय । ५५. विकले द्वे द्वे । विकलेंद्रिय - बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चटरिद्वियमां बे जीवस्थान ते आ-पर्याप्तो अने अपर्याप्तो। ५६. से अन्त्यानि दश । 串

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