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आगमोद्धारक -ग्रन्थमालायाः चतुःपञ्चाशं रत्नम् णमो त्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ।
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पू० आगमोद्वारकाऽऽचार्य श्री आनन्द सागरसूरीश्वर प्रणीतं
कर्मार्थ-सूत्रम्
(संक्षिप्त गुर्जरार्थसहित )
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-संशोधकःपूज्य - गच्छाधिपति आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्यः शतावधानी पंन्यास लाभसागरगणिः
वीर संवत् २४९९ विक्रमसंवत् २०२९ आगमो० सं० २४
प्रतयः ५०० ]
[ मूल्यम् २-००
-प्राप्तिस्थान
श्री जैनानंद-पुस्तकालय गोपीपुरा, सुरत.
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आगमोद्धारक-ग्रन्थमालायाः चतुःपञ्चाशं रत्नम्
णमो त्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स । पू० आगमोद्धारकाऽऽचार्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरप्रणीतं
कमार्थ-सूत्रम् (संक्षिप्तगुर्जरार्थसहित )
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Basa४00000000000000000000000000000000000
-संशोधकःपूज्य-गच्छाधिपति-आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्यः शतावधानी पंन्यास लाभसागरगणिः
वीर संवत् २४९९ विक्रमसंवत् २०२९ आगमो० सं० २४ प्रतयः ५००]
[मूल्यम् २-००
___ -प्राप्तिस्थानश्री जैनानंद-पुस्तकालय गोपीपुरा, सुरत.
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प्रकाशकआगमोद्धारक ग्रन्थमालाना एक कार्यवाहक
शा-रमणलाल जयचन्द्र कपडवंज (जि.) खेडा
सुसिला-तंबयपत्तारूढा सव्वे जिणागमा जेण । निम्मविया आणंदोदहिसूरीसो सया जयउ ॥१॥
मुद्रकमोहनलाल मगनलाल बदामी, जैनानंद प्रिन्टिंग प्रेस, दरियामहेल, * सूरत.
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प्रकाशकीय - निवेदन
प० पू० गच्छाधिपति आचार्यश्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी म० नी निभ्रामां वि० सं० २०१० वर्षे आगमोद्धारकग्रन्थमालानी स्थापना था हती. आ ग्रन्थमालाए त्यारबाद प्रकाशनोनी ठीक ठीक प्रगति करी छे.
सूरीश्वरजीनी पुण्यकृपाए ' कर्मार्थ- सूत्र' नामनो ग्रन्थ आगमोद्धारक प्रथमालाना ५४ मा रत्न तरीके प्रसिद्ध करतां अमोने अत्यंत हर्ष थाय छे.
आनी प्रेस कोपी तथा संशोधन पू० गच्छाधिपति आचार्यश्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी म० नी पवित्र दृष्टि नीचे शतावधानी पंन्यास श्रीलाभसागरजी गणिए करेल छे. ते बदल तेओभीनो तथा जैनानंद प्रिंटिंग प्रेसना मालिक शा. मोहनलाल बदामीए वगर वेतने मुद्रण करी आप्युं ते बधानो आभार मानीए छीए.
ली०
प्रकाशक
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आगमोद्धारकाऽऽचार्यश्री-आनन्दसागरसूरीश्वर
स्तुत्यष्टकम् । जयन्तु सूरिराजास्ते सार्वशासनमण्डनाः । आगमोद्धारकाः पूज्या आचार्याऽऽनन्दसागराः ॥१॥ वाचनासुगमत्वार्थ नियुक्ति वृत्तिभूषिताः । सूत्रज्ञैरागमाः सर्वे यैः संशोध्य प्रकाशिताः ॥२॥ यैः सद्भिर्जेनसाहित्य-सेवाऽर्पिताऽऽत्मजीवनैः । प्राच्याः परःशता ग्रन्था विशोध्य प्रकटीकृताः ॥३॥ मुनीनां श्रुतबोधाय पत्तनादिपुरेषु यैः । पाण्मासिक्यः शुभाः सप्त दत्ता आगमवाचनाः ॥४॥ तलाटिकायां सिद्धाद्रे-स्तथा सूरतबन्दिरे । जाते यदुपदेशेन रम्ये आगममन्दिरे ॥५॥ भोपावराऽभिधं तीर्थ मालवाऽवनिमण्डनम् । येभ्यः प्रसिद्धिमापन्नं श्रीशान्तिजिनभूषितम् ॥६॥ प्रबुद्धो मालवे येभ्यो दिलीपसिंहभूपतिः । प्रावर्तयत् स्वग्रामेष्व-मारिं पर्युषणादिषु ७॥ यैरादिविंशिकावृत्तिः श्रीपञ्चसूत्रवार्तिकम् । तथा कर्मार्थसूत्रं चे-त्यादिग्रन्था विनिर्मिताः ।८॥ जिनबिम्बप्रतिष्ठादि-कुत्यान्येवं विधाय ये । ऋतुखद्वयहस्ताब्दे सूर्यपुरे दिवं गताः ॥९॥
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सर्जन अने सर्जक
पीठिका :- जगतना अन्य दर्शनो धर्मो स्वीकारे या नहि, परन्तु आ एक सनातन सत्य छे के जैनदर्शनना स्याद्वाद अने कर्मसिद्धांतनी तुलनामा कोई टकी शके तेम नथी.
स्याद्वाद : आ सिद्धांतनु बीजु नाम छे अपेक्षावाद - भिन्नभिन्न अपेक्षाए प्रत्येक पदार्थमां अस्तित्व, नास्तित्व विगेरे अनेक धर्मोनो खीकार तेनुं नाम स्याद्वाद छे.
आ सिद्धांत एवो मजबूत सिद्धांत छे के अन्य दर्शनकारो सिद्धांत कदाच न स्वीकारे परंतु सामान्य जनव्यवहारमा तेओ पण आ सिद्धांतने अनुसरता होय छे. जेमके घणी वखत तबीयत केम छे ? आना उत्तरमां जणावात होय छे के ठीकाठीक छे आ उत्तरमां स्पष्टपणे स्याद्वाद दृष्टिगोचर थाय छे.
कर्मसिद्धांत :—स्याद्वाद पछीनो आ सिद्धांत छे जैन दर्शनमां जणाववामां आवेला नवतत्त्व [ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर निर्जरा, बंध, मोक्ष]मांथी छेल्ला साते तत्त्वो मुख्यतया कर्मसिद्धांतने लगता रहेला छे. कर्मने भाग्य- - विधि विगेरे शब्दोथी तो इतर-दर्शनकारो पण आलेखे छे, तेमज मानव जीवनमा पूर्वकर्मनी महत्ता विशेषतया समायेली छे. सदाचारथी शुभ कर्म दुराचारथी अशुभ कर्म बंधाय छे. पूर्वे जे कर्म बांध होय ते आत्माने भोगवबु पडे छे कर्मना बंधनो तूटे त्यारे आत्मा मुक्त बने छे विगेरे विगेरे बाबतो द्वारा इतर धर्मोम पण कर्मनी महत्ता दर्शावाइ होय छे. परंतु तेओ कर्मना सिद्धांतमां ईश्वरतत्त्वने पण मेळवी दे
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छे जेमके “ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा” अने एम करता अजाणपणे पण कर्म करता ईश्वरनी महत्ता वधारवामां आवी जाय छे आसमान-जमीन जेटलं अंतर धरावता आ विषयो एकमेक एवा मेळवी देवामां आवे छे के बन्नेने छुटा पाडीने समजवा मुश्केल थइ जाय छे. कर्म अगर ईश्वरनी महत्ता वधवाने बदले बन्नेनी महत्ता तूटी जाय छे. आमाथी पछी ईश्वरवाद, एकेश्वरवाद ने सृष्टिवाद विगेरे बाबतो खडी थइ जाय छे, बाकी जो कर्म सिद्धांतने बराबर समजवाना दृष्टिकोणथी समजवामां आवे तो आ ईश्वरवाद, एकेश्वरवाद ने सृष्टिवाद विगेरे तम म असंबद्ध बाबतो पत्ताना महेलनी माफक तूटी पडे. जैनो कर्म अने ईश्वर ए बन्ने अलग अलग रूपे माने छे.
(१) कर्म ने एक कल्पना शील विषय नही, एकला सारा नरसा विचारो अगर कार्यों ज नहि परन्तु अजीव तत्त्वना एक भाग रूप पुद्गल द्रव्य, तेना एक भाग तरीके माने छे के जेना परमाणुओ चौदे राजलोका खीचोखीच भरेला छे. (२) कर्मो आत्माने अनादिकालथी वलगेला छे (३) आत्मा अने कर्म वच्चेनो संबंध अमुक अपेक्षाए क्षीरनीर जेवो छ (४) आत्मा स्वयं पोताना शुभ-अशुभ परिणामो द्वारा शुभाशुभ कर्मनो बंध करे छे (५) अने ते ते प्रमाणे आत्मा तेमुफल भोगव्या करे छ (६) सांसारिक सुखनो अनुभव करावनार शुभकर्म पण आत्मा माटे बंधनरूप छे (७) आ कर्मने लीधे ज आत्मा संसारमा रखडे छे (८) अने आ कर्मना बंधनोने ज्यारे संपूर्णपणे तोडी नाखे-क्षय करी नाखे पोतानाथी सम्पूर्णतया अलग पाडी दे अने शुद्धस्वभावनु प्रकटीकरण करे त्यारे आत्मा ईश्वर (सिद्ध) थाय छे मुक्त थाय छे (९) अने ते आत्मा
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फरी कदी कर्मनो बंध करतो नथी (१०) उपरोक्त बन्ने विषयोने बहु समज अने सूक्ष्मताथी समजवानो प्रयास करवामां आवे त्यारे आ बन्नेनी यथार्थता समजाय छे अने ते बाद चोकसपणे आपणने लागे के जैनो पोताना तीर्थकरने सर्वज्ञ ने सर्वदशी तरीके ओलखावे छे ते सत्य छे.
कर्मसाहित्य : कर्मने अंगे श्रीभगवतीसूत्रमा ठेर ठेर मलता प्रश्नो, कम्मपयडी, चंद्रमहत्तरनो छडो कर्मग्रंथ अने आ० देवेन्द्रसूरिए रचेल पांच कर्मग्रन्थो तथा ते तमामनी वृत्ति, दश पूर्वधर उमास्वाति वाचकवर्यना तत्त्वाथ सूत्रनो आठमो अध्याय तथा प्रस्तुत कर्मार्थ सूत्र विगेरे विशाल प्रमाणमा साहित्य आगम अने आगमेतर ग्रंथोमां जोवा जाणवा मले छे आ विशाल साहित्यमा भगवतीना प्रश्नो, तत्त्वार्थनो आठमो अध्याय अने आ प्रस्तुत कृति ते सूत्रात्मक छ बाकी लगभग पद्यात्मक साहित्य छे.
विशिष्टता : आ कृतिनी विशेषता ए छे के भगवतीमांना प्रश्नो सूत्रात्मक जरूर छे परन्तु प्राकृतभाषा निबद्ध छे स्वतंत्र कृति नथी तेमज तत्त्वार्थनो आठमो अध्याय ते दश अध्यायनो एक भाग छे एटले ते पण स्वतंत्र कृति नथी आम वीरप्रभुना निर्वाणना २४९९ वर्षना प्राप्त थता साहित्यमा अने जोवा जाणवा मलता इतिहासना प्रकाशमां प्रथमवार आ कृति आवी रही छे जे संस्कृतभाषा निबद्ध अने सूत्रात्मक छे अने तेनु नाम कर्मार्थपत्र छे.
परिचय : सूत्र विभागमा वहें चायेल आ कृतिमां पांच कर्मग्रथने संक्षेपथी समाववानो प्रयास करवामां आवेल होवाथी कर्मग्रंथनु संक्षिप्तरूप अगर संक्षिप्तकरण शब्दनो प्रयोग अयुक्त नहि गणाय.
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पहेला कर्ममेदाधिकारमा कर्मना आठ मेद अने उत्तरभेदो दर्शावाया छे आमां १-२४ सूत्रो छे त्यार पछीना छ सूत्रो (२५-३७) मां २ सूत्रो १४ गुणस्थानक तथा जीवस्थानना नामोनां छे. पछीना चार सूत्रोमां ते ते जीवस्थानकोमा केटला केटला गुणस्थानको होय छे ते जणाव्युं छे त्रीजो योगाधिकार (३१-३७) सात सूत्रो द्वारा दर्शाव्यो छे आमां एक सूत्र द्वारा योगना भेदो नामसहित जणाववामां आव्या छ पछीना छ सूत्रो द्वारा १४ जीवस्थानकोमा कया कया योगोनु अस्तित्व होय ते प्ररूप्यु छे. पछी उपयोगाधिकार-लेश्याधिकार विगेरे अधिकारो छे.
महत्ता : जेम नाना नाना परन्तु निरंतर वहेता निर्मल झरणाओ विशाल नदीनु सर्जन करे छे तेम सर्वस्व अर्पणनी तमन्ना अद्वितीयधैर्यता सत्यप्रत्येनी अविचल वफादारी विगेरे गुणो (मानवीमां) महानतानु सर्जन करे छे आ महानता तेओना नानामां नाना कार्यो मां पण देखाइ आवे छे आवी आ एक लघुकृति छे जे आगमोनी—'अप्पग्गंथ महत्थ” तेमज लौकिक-बिंदुमां सिंधुनी उक्तिने सार्थक करावती बहु थोडा सूत्रो द्वारा विशाल अर्थ-भावार्थ आवरी लइने कृतिकारनी महानताने दर्शावती जाय छे.
महान्पूर्वज : विक्रमनी १९ मी सदीनो सूर्य हजी मध्याह्ने आव्यो न हतो (१९ मी सदीनी शरुआत)। जतिओ, श्रीपूज्यो, भट्टारकोनी सत्ता घसाती रही हती वादलघेरी अमासनी घोर अंधारी रजनीमा जेम कोक कोक तारलिया चमकता होय तेम शासनमा संवेगी मुनिओमा पण सनातनीभो-स्थानकवासीओ-तेरापंथीओ-दिगम्बरो-त्रिस्तुतिक (त्रणथोय)
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मतवालाओ जनसमाजमा भ्रमणाओ उत्पन्न करी रह्या हता. शासनप्रत्यनीको परमात्माना शासनने छिन्नभिन्न करवा चोमेरथी मरणीया प्रयास करी रह्या हता वो थी चाली आवती संवेगी मुनिओ, श्रीपूज्यो, भट्टारको अने यतिओ वच्चेनी सुमेलभरी परिस्थितिनो संवेगीओ द्वारा जाणे अजाणे तेओनौ सत्ताने पडकारवामां आवता करुण अंत आवी रह्यो हतो यतिओ पण निरपेक्ष थता चाल्या हता. ज्ञाननी मात्रा पण घणी नीची उतरी गई हती. आवी गंभीर अस्थिर परिस्थिति वच्चे पण जेम काजल धेरी अमासनी घोर अंधकार भरी रजनौमां पण कोक कोक तारलिया टमटमता होय छे अने अंधकारने उलेचवानो प्रयास करता होय छे तेम शासन प्रत्येनी सम्पूर्ण वफादारीमाथी जन्मेली त्याग अने खार्पणनी भावनाथी शासनने स्थिर दृढ अने तेजस्विताने अमर राखवा जे महात्मा मुनिओ कार्य द्वारा विशाल जनसमाजना हैयाना सिंहासन उपर बिराजमान होय तो एकमात्र विद्वद्वरेन्द्र यथार्थनामा श्रीमद् झवेरसागरजी महाराज साहेब हता.
महापुरुष : आ महापुरुषना जीवन विषे कोइ विशेष माहिती उपलब्ध नथी पण तेमना गाढ परिचयमा आवेला लिंबडी उदयपुर विगेरेना वयोवृद्ध श्रावको द्वारा सांभलवा मलता संस्मरणो तेमज तेमनी उपर आवेला पत्रो तेमना जीवननी अमर यशोगाथा आपणी समक्ष रजु करे छे.
तेओश्रीना जीवनना अंतिम वर्षो मां पण शिष्यपरिवारनो विशाल वर्ग न हतो.
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खर्गगमनना आगले वर्षे 'सात कुलांगार करता एक कुलदीपक सारो' ए उक्ति यथार्थ करावे तेवा एक मुमुक्षुने स्खशिष्य तरीके दीक्षा आपी मुनि आनंदसागरजी नामे जाहेर कर्या अने काल पण जाणे कुलदीपक शिष्य शवानी राह जोइने उभेलो होय तेम बीजा ज वर्षे सं. १९४८ मागसर सुदी ११ दिवसे लिंबडी मुकामे शिष्यसह विशालजनसमुदायना मुखे नमस्कार महामंत्रना श्रवणपूर्वक शासन प्रत्येनी अविचल वफादारी नूतन दीक्षित मुनि आनंदसागरजीने भलाव्याना पूर्ण संतोष साथे चिरनिद्रामा पोढी गया त्यारबाद तेमनो नश्वर देह पण पंचमहाभूतमा मली अनंत क्षितिजमां विलीन थइ गयो पूज्यश्री विदाय साथे रही गइ तेमनी विशाल स्मृतिओ स्मृतिशेषरूप एकमात्र शिष्यरत्न ते ज कर्मार्थसूत्र कृतिना सजनहार.
जीवन अने कवन : महान विभूतिना शिष्य थवा सर्जायेला आ महापुरुषनो जन्म वि. सं. १९३१ मां अषाड वद अमावास्या जे लोकमा दिवासाना पर्व तरीके उजवाय छे ते दिवसे नवांगीवृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिए अनशन सह समाधिपूर्वक पोताना नश्वरदेहनो त्याग करीने जे धरतीने जैन इतिहासमा शोकपूर्ण अमरता अपावेल छे ते पुण्यभूमि कपडवंज (कर्पटवाणिज्य) नामना गाममा गांधी भायचंदभाइना पुत्र मगनभाइ गांधीने घेर थयो हतो. पूज्यश्रीनी माता थवानु सौभाग्य प्राप्त करनारनु नाम जमनाबेन हतु तेओश्रीना एक वडील बंधु पण हता तेमनु नाम मणीलालभाइ हतु पूज्यश्रीना लग्न माणेकबेन साथे थया हता दाम्पत्य जीवनना फल स्वरूप एक पुत्र पण हतो.
पूज्यश्री पोतानी १६ वर्ष ४ मास ५ दिवसनी उमरे सं १९४७मां
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लिंबडी मुकामे दीक्षित थया तेमनी वडी दीक्षा उपस्थापना मारा पू० गुरुदेवश्रीना जणाव्या प्रमाणे ( मुनिराजश्री कमलविजयजीनी पन्यास पदवीना दिवसे थइ हती ते अनुसार ] उपस्थापनानो दिवस १९४७ आषाढ - सुदी ७ छे. बीजे वर्षे गुरुदेव कालधर्म पाम्या गुरुदेवना आदर्या अधूरा रहेला कार्यो पूरा करवानी जवाबदारी आवी, बीजी भणवानी पण, तैयार थवानी शासनना पवित्र ऋणने अदा करवानी आवी अनेक जवाबदारीओ विरहथी अवी. परन्तु गुरुना एकमात्र शिष्य होवा छतां 'एके हजारानी' उक्ति ने सार्थक करवा पोतानी उपर आवेली ए जवाबदारीओने पूर्ण करवा कटिबद्ध बन्या स्वयं तैयार थवानी साथसाथ शासन, आगम अने आपणा पूर्वजोनी महान् भव्य उज्वल परंपराओनी पण रक्षा करीने तेने आगल वधारवानी तैयारी करवा लाग्या.
सं. १९५२ : इतिहासनी कलम आगल वधे छे दीक्षित अवस्थाने
चछे गुरुना वियोगने चार वर्ष थवा आव्या छे पेटलादना संघनी भावभरी विनंति स्वीकारी त्यां चातुर्मास पधार्या दीक्षित पितानी तबीयत अस्वस्थ बने छे गंभीर बने छे एक दिवसनी उषा एवी प्रगटे छे. पुत्रना हस्ते अंतिम आराधना स्वीकारी पिता स्वर्गे सिधावे छे आ आघातने पण शरीरनी नश्वरता जाणी पचावी जाय छे अने ते • वखते चाली रहेला सांवत्सरिक पर्वनी आराधना क्यारे करवी ? विवादमां प्रथम तिथिनी स्थापना पछी आराधना ( १ ) पर्वतिथिनो क्षय न थइ शके (२) अने एक दिवस माटे वर्षो जुना संघ मान्य पंचांग छोडी बीजु पंचांग मान्य करवु वली पाछु असल पंचांग मान्य करवु आ वात नैतिक भूमिका उपर पण व्याजबी नथी (३) पोतानी विचक्षण बुद्धिप्रभाथी
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शास्त्र अने उज्वल परंपराओनो अभ्यास करी तेना सारभूत आ त्रण मार्गदर्शक सिद्धांतोने स्पष्टपणे स्वीकारी ते वर्ष ना पंचांगमा भादरवा सुद पांचमनो क्षय हतो तेने बदले भादरवा सुद त्रीजनो क्षय करवानु योग्यमानी पेटलादमा संघ साथे शास्त्रने परंपरानुसारे सांवत्सरिक पर्वनी यथार्थ आराधना करी त्यारबाद विश्वमा केटलुय परिवर्तन आवी गयुं छे सामाजिक राजकीय परिस्थिति पण महद् अंशे बदलाइ गइ छे आजकाल करता ६७ वर्ष जेटलो समय पसार थइ गयो छे परन्तु ए १९५२ ना सिद्धांतो आजे पण मार्गदर्शक तरीके अणनम खडा छे अने लगभग स्वीकृत पणे समग्र शासनमां ते स्वीकार्य बन्या छे. जेओ वर्षों सुधी आ सिद्धांतोनी सामे विविध निंदनीय पद्धतिओ द्वारा पोताना अहं ने पोषवा खातर शासननी अस्मिताने झाखी पाडवा लाग्या तेओ पण छेल्ला लगभग ९ थी १० वर्ष थी शांति अपवाद रूपे विगेरे शब्दोनी सजावट नीचे सांवत्सरिक सिवाय अन्य तिथिओ बाबतमा शासनना आ सत्य सिद्धांतोन स्वीकार्या छे.
सं. १९५२ ना आ बनावे पूज्यश्रीने अमरता बक्षी दीधी, तेजस्वितानी आभा पूर्णरूपे हिंदमां खीली उठी लोक हृदयमा आदर सन्माननी भावना प्रगटी उठी.
गौरवपूर्ण अंत : महानतानी अनेरी झलक तेओश्रीना जीवनमा प्रसरी चूकी. सात आगम वाचनाओ आगमोनु मुद्रीकरण आगमोने शीलोकीर्ण करी, ताम्रपत्रमा कोतरावी पालीताणा सुरतमां भव्य आगममंदिरो बंधावी प्रान्त अवस्थामा स्व आराधना माटे आराधनामार्ग नामना संस्कृतग्रंथनी रचना करी छेल्ला १५ दिवस अर्धपद्मासने अनशननी जेम
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ध्यानमा रही प्राचीनकालीन अनशन परंपरानी आगली प्रतिभाने चमकावी सं. २००६ ना वैशाख वद-६ नमता पहोरे ४-३२ मीनीटे पोताना अनन्य पट्टधर गच्छाधिपति आचार्यश्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी म० विगेरे चतुर्विध संघनी विशाल हाजरीमा नमस्कार महामंत्रनु श्रवण करता नश्वरदेहनो त्याग कयो'.
अमर याद : नश्वरदेहना त्यागनी साथे एक भव्य जीवनयात्रा समाप्त थइ विश्वनी बाह्य चर्मचक्षुथी एक महान विभूति अदृश्य थइ गइ सात आगमवाचनाओ स्मृत्यवशेष थयेल माथुरी-वाल्लभी वाचनाओनी पुनर्यादरूपी सरस्वती, भव्य बे आगममंदिरोमा अधि कल्पनासृष्टाउपदेश द्वारा, प्रणेता द्वारा प्रवचनान्धकार दिवाकर श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण आगमोने पत्रारूढ कराव्या ते १००० करता वधु प्राचीन स्मृतिना पुनरावर्तन रूप गंगा, अने अनशननी जेम समाधिपूर्वक अर्ध पद्मासन मुद्रामा जीवनना छेल्ला श्वासनी पूर्णाहुति करवा द्वारा प्राचीनकालीन भव्यतम अनशनप्रथाने पुनर्जीवित करवा रूप यमुना, आ त्रण अमर कार्यरूप गंगा, जमना, सरस्वतीना संगमस्थान प्रयागतीर्थ रूप तेओश्रीना जीवननी यशोगाथा गाता तेओश्रीना महान् कायोनी पूनीत याद.
अन्त : पू. आगमोद्धारकश्रीना प्रत्यक्ष दर्शन वन्दनना लाभथी पण वंचित एवो अज्ञानी हु तेओश्रीना अर्थ गंभीर पुस्तकोंनी प्रस्तावना केवी रीते लखी शकवानी क्षमता धरावी शकु ? छतां आ एक ते पूज्यश्रीना
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अज्ञात आशीर्वाद अने मारा गुरुदेवश्रीनी परम वात्सल्यपूर्ण कृपाथी क्षुल्लक प्रयास कयों छे छता आमा कंइ पण क्षति होय तो ते सुधारीने विशाल हृदयपूर्वक क्षमा बक्षवा कृपा करशो एज आशा साथे विराम पामु छ ।
ली० परमकृपालु प्रशान्तमूर्ति गच्छाधिपति आचार्यश्री माणिक्यसागरसूरीश्वर शिष्याणु
मुनि पुण्योदयसागर.
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विभङ्ग
शुद्धिपत्रकपृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धम्
शुखम् ६ २१ अशुभ, सुस्वर अशुभ, सुभग अने दुर्भग,
सुस्वर ९ ६ मनोयोग, वैक्रिय. मनोयोग, एम चार वचन
योग तथा औदारिककाययोग, औदारिकमिभकाय
योग, वैक्रिय. ३ आठ पांच माठ छ पांच १७ विभङ्ग ११ चत्वारि चत्वारि ___२ असंझि
असंशि १३ अने
अने १६ १८ होय
होय १७ ५ ६३
६२ १८ ३ स्ब
९ नर२३ ३ पंचेंद्रिय, पंचेंद्रियजाति, २३ १९ पश्च० द्वयेकाक्षाः) पश्च० द्वयकाक्षाः)
८ असल्या ऽसल्या २५ ९ संयभी
संयमी
स्व
नर
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पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धम
२८ २. बंघाय
२९
३२ ९ दुःस्बर
१७ अनंतचतुष्क
३३
३३
३८
३८
३८
४०
५२
५३
४ र्नपुंश्चतुष्कं
२० होब
११ पूर्वीको
१८ काऽन्त्येभको
१८ द्विकोsन्त्यो
१६
७ सम्यक्त्वमो, मो.,
६ मध्धवम् ।
१७ (शेषांः)
७४ ५ निजराः
शुद्धम
बंधाय
अनंतकषायचतुष्क
दुःस्वर
र्नपुचतुष्कं
होय
पूर्वीको
भद्विको
द्विकाऽन्त्यो
सम्यक्त्वमो०,
मधुवम् (सत्) । ( शेषाः)
निर्जरा:
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णमो त्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमोद्धारकाऽऽचार्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरप्रणीतं
____कर्मार्थसूत्रम्
नत्वा नम्रसुराधीशं कर्मक्षयविधिप्रदम् । सूत्रैस्तदुक्तः कर्मार्थो वर्ण्यते तद्रूचिस्मृतः ॥ १ ॥
नमी रह्या छे सुराधीशो-इंद्रो जेने, नेमज कर्मक्षयनी विधि-क्रियाने बतावनार, एवा (जिनेश्वरदेव) ने नमस्कार करीने तेमणे प्ररूपेल कर्मपदार्थ सूत्रो द्वारा वर्णवाय छ ।
हवे कर्मना मूलभेदोने जणावे छे१. ज्ञानदृष्ट्यावरणवेदमोहाऽऽयुर्नामगोत्राऽन्तराया मूल
प्रकृतयः ।
आत्माना शुद्ध स्वरूपने आच्छादित करनार एकप्रकारन पुद्गल ने कर्म छे. तेना आठ प्रकार छ -ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेद-वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र अने अंतराय ।
तेमां ज्ञान एटले विशेषषोध तेने आवरे ते ज्ञानावरण, दर्शन एटले सामान्यबोध तेने आवरे ते दर्शनावरण, सुख-दुःखनो अनुभव करावे ते वेदनीय, स्त्रीपुत्रादिकमां ममत्व करावे ते मोहनीय, जीवने परभवमा जतां अटकावे ते आयुष्य, गति-जाति-शरीर आदिने करे ते नामकर्म,
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जेथी उंच-नीचपणे बोलाय ते गोत्रकर्म, दान-लाभ आदिमां विघ्न करे ते अंतगय ।
हवे उत्तरप्रकृतिनी भेदसंख्या कहे छे२. उत्तरा यथासङ्ख्यम् ।
( पश्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुस्युत्तरशतद्विपञ्चमेदाः )
आठ मूलप्रकृतिओनी उत्तरप्रकृति अनुक्रमे पांच, नव, बे, अट्ठावीश, चार, एकसोने त्रण, ये अने पांच भेदो छ ।
हवे ज्ञानावरणीयकर्मना मेद वर्णवे छे३. मति-श्रुताऽवधि-मनःपर्याय-केवलानाम् । ____ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान अने केवलज्ञान ए पांच ज्ञानोना आवरण एटले मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्याय ज्ञानावरण अने केवलज्ञानावरण ए पांच ज्ञानावरणीयकर्मना भेदो छे.
___ हवे दर्शनावरणीयकर्मना भेद जणावे छे४. चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला
प्रचलाप्रचला-स्त्यानगृद्धि-वेदनीयानि च ।
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने केवलदर्शन ए चार दर्शनोना आवरण एटले चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण अने केवलदर्शनाधरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला अने स्त्यानदि ए नव दर्शनावरणीयकर्मना भेदो छे
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हवे वेदनीयकर्मना भेद प्ररूपे छे५. सदसद्वद्ये । ___सातावेदनीय अने बाताबेदनीय ए वे वेदकीयकर्मना मेदो छे.
हवे मोहनीयकर्मना भेद निरूपे छे६. सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयानि दर्शनमोहनीयम् । ७. कषाया-अनन्ताप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानावरण-सज्व
लनाख्याः प्रत्येकं क्रोध-मान-माया-लोभाः, नोकषाया-हास्य-रत्य-रति-शोक-भय-जुगुप्साः स्त्रीपुंनपुंसकवेदाः चारित्रमोहनीयम् ।
सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय अने तदुभयमिश्रमोहनीय ए त्रण दर्शनमोहनीय छे. ए साची श्रद्धाने अटकावे छे.
अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोभ तथा अप्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया अने लोभ तथा प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया अने लोभ तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया अने लोभ. ए सोल कषाय छे. तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय अने दुगुंछाजुगुप्सा तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसकवेद ए नव नोकषाय छे.
एवं पच्चीस चारित्रमोहनीयकमा भेदो छे. ए. सल्वर्तनने अटकावे छे.
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४
एवं मोहनीयकर्मना अट्ठावीस भेदो छे. वे आयुष्यकर्मना भेद बतावे छे
८. नारक - तैर्यग्योन - मानुष - दैवानि । (आयूंषि) नारकायुष्य, तिर्यंचायुष्य, मनुष्यायुष्य अने देवायुष्य ए चार आयुष्यकर्मना भेदां छे.
ea नामकर्मना भेदो प्ररूपे छे
९. नर - नरक - देव - तिर्यग्गत्यानुपूर्व्यः ।
१०. एक - द्वि- त्रि- चतुः - पञ्चेन्द्रिया जातयः । ११. औदारिक - वैक्रिया - SSहारक - तैजस कार्मणानि शरीर - सङ्घातनानि ।
१२. आदित्र्युपाङ्गानि ।
१३. स्वयुक् - तैजस - कार्मणयुक् - त्रिपरस्परबन्धनानि । १४. वज्रर्षभनाराच - र्षभनाराच नाराचा ऽर्धनाराच -
कीलिका - सेवा संहननानि ।
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१५. समचतुरस्र - न्यग्रोध- सादि - कुब्ज - वामन - हुण्डानि संस्थानानि ।
१६. कृष्ण - नील-रक्त- हरिद्र - सिता वर्णाः । १७. सुरभ्य - सुरभी गन्धौ ।
१८. तिक्त-कटु- कषाया - Sम्ल - मधुरा रसाः ।
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१९. गुरु - लघु - मृदु - खर-शीतोष्ण-स्निग्ध-रूक्षाः
स्पर्शाः । २०. शुभा-ऽशुभौ खगमौ । २१. अगुरुलघू-पघात-पराघातो-च्छ्वासा-ऽऽतपोद्योत -
जिन-निर्माणानि प्रत्येकाः प्रकृतयः । २२. त्रस-बादर-पर्याप्त-प्रत्येक-स्थिर- शुभ - सुभग
सुस्वरा-ऽऽदेय-यशःसेतरे त्रसस्थावरदशके । गति-नरगति, नारकगति, देवगति अने तिर्यंचगति तथा आनुपूर्वी-नरानुपूर्वी, नारकानुपूर्वी, देवानुपूर्ण अने
तिर्यंचानुपूर्वी । जाति-एकेन्द्रियजाति, बेइन्द्रियजाति, तेइन्द्रियजाति,
चउरिन्द्रियजाति अने पंचेंद्रियजाति । शरीर-औदारिकशरीर, वैक्रियशरीर, आहारकशरीर,
. तेजस शरीर अने कार्मणशरीर. तथा संघातन-औदारिकसंघातन, वैक्रियसंघातन, आहारक
संघातन, तैजससंघातन अने कार्मणसंघातन । उपांग-पहेला त्रण शरीरमा उपांगो अर्थात् औदारिको
पांग, वैक्रियोपांग अने आहारकोपांग । बंधन-औदारिकऔदारिकबंधन, औदरिकतैजसबंधन, औदा
रिककार्मणबंधन अने औदारिकतैजसकार्मणबंधन, नथा बैक्रियवैक्रियबंधन, वैक्रियतैजसबंधन, वैक्रियकार्मणबंधन. अने वैक्रियतैजसकार्मणबंधन; तथा
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आहारक आहारकबंधन, आहारकतैजसबंधन, आहारककार्मणबंधन, अने आहारकतैजसकार्मणबंधन; तथा तैजसतैजसबंधन, कार्मणकार्मणबंधन अने
तैजसकार्मणबंधन । संघयण-बज्रऋषभनारायसंहनन, ऋषभनाराचसंहनन,
नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन, कीलिकासंहनन
अने सेवात्तसंहनन । संस्थान-समतुरस्रसंस्थान,न्यग्रोधसंस्थान,सादिसंस्थान,
कुब्जसंस्थान, वामन संस्थान अने हुंडकसंस्थान । वर्ण-कालो, लीलो, लाल, पीलो अने सफेद वर्ण । गंध-सुरभिगंध अने दुरभिगंध । रस-तीखो, कडवो, तुरो, खाटो अने मधुर रस । स्पर्श-भारे, हलको, कोमल, कठोर, शीत, उष्ण, चीकणो
अने रूक्ष स्पर्श। विहायोगति-शुभ अने अशुभ खगम-विहायोगती । प्रत्येक प्रकृति-अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास,
आतप, उद्योत, जिननाम अने निर्माण ए
प्रत्येक प्रकृतिओ। इतर-प्रतिपक्षसहित अर्थात्-त्रस अने स्थावर, बादर अने
सूक्ष्म, पर्याप्त अने अपर्याप्त, प्रत्येक अने साधारण, स्थिर अने अस्थिर, शुभ अने अशुभ, सुस्वर अने दुःस्वर, आदेय भने अनादेय, यश अने अपयश ए. त्रसदशक अने स्थावरदशक ।
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आ प्रमाणे नामकर्मना १०३ मेदो छे.
हवे गोत्रकर्मनी मेद देखाडे छे२३. उच्चैनी चैगोत्रे । उच्च अने नीच ए बे गोत्रकर्मना भेद छे.
हवे अंतरायकर्मना मेद बतावे छे२४. दान-लाभ-भोगो-पभोग-वीर्याणाम् (अन्तरायाः)।
दान, लाभ, भोग, उपभोग अने वीर्य ए पांचना अंतरायो एटले दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय अने वीर्यांतराय ए पांच अंतरायकर्मना मेदो छे. आ कर्म दानदेवामां लाभ-भोग आदिमां विघ्न करे छे ! ___बधी कर्मप्रकृतिओनुं स्वरूप कर्मग्रंथनी टीकाथी जाणवू ।
हवे १४ गुणस्थानको कहे छे२५. मिथ्यात्व-सास्वादन-मिश्रा-ऽविरत-देशविरत-प्रमत्ता
ऽप्रमत्तसंयत-निवृत्त्य-निवृत्तिबादर-सूक्ष्मसम्परायोपशान्त-क्षीणमोह-सयोग्य-योगिजिना गुणाः । मिथ्यात्व, सास्वादन, मिश्र, अविरलसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, निवृत्तिबादरसंपराय, अनिवृत्तिवादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली (जिन) अने अयोगीकेवली ए चउद गुणस्थान छे।
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हवे १४ जीवस्थानो जणावे छे२६. एकेन्द्रियसूक्ष्मवादर-पञ्चेन्द्रियसङ्ग्यसज्ञि-द्वि-त्रि
चतुरिन्द्रियाः पर्याप्ताऽपर्याप्ता जीवाः ।
सूक्ष्मएकेंद्रिय,बादरएकेंद्रिय संक्षीपंचेंद्रिय, असंज्ञीपंचेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय ए सात प्रकारना जीवो पर्याप्ता अने अपर्याप्ता एम चउद जीवना स्थानको-भेदो छ ।
हवे जीवस्थानोमा गुणस्थानको कहे छे२७. अपर्याप्ते बादरासज्ञि-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिये प्रथम
द्वितीये ।
अपर्याप्त बादर एकेंद्रिय, अपर्याप्त अपंशी पंचेंद्रिय, अपर्याप्त बेइंद्रिय, तेइंद्रय अने चरिंद्रिय जीवने विष पहेलु अने बीजु गुणस्थान होय छ । २८. सङ्ग्यपर्याप्ते साऽयते ।
अपर्याप्त संक्षीपंचेंद्रियने विषे अयत-अधिरतसहित एटले पहेलु बीजु अने चोथु एम प्रण गुणस्थान होय छे । २९. सञ्जिपर्याप्ते समानि । ___ संशी-पर्याप्तने विषे सर्व गुणस्थानक होय छे । ३०. शेषेषु मिथ्यात्वम् ।
शेष-सूक्ष्म अपर्याप्ता, सूक्ष्म पर्याप्ता, पर्याप्त बादर एकेद्रिय, पर्याप्त बेइंद्रिय, तेइंद्रिय भने चउरिंद्रिय अने पर्याप्त असंहिंपचेंद्रिय ए सातने विषे एक ज मिथ्यात्व-गुणस्थानक होय छे ।
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हवे योगना भेद कहे छे
३१. सत्याऽसत्यमिश्रव्यवहारमनोवचनौदा रिकवैक्रियाss - हारक - तन्मिश्रकार्मणानि योगाः ।
मन, वचन अने कायानी क्रिया तेने योग कहें छे, तेना १५ भेदो छ - सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, मिश्र - सत्यमृषा मनोयोग अने व्यवहार-असत्यामृषामनोयोग, वैक्रियकाययोग, वैक्रियमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्र काययोग अने कार्मणका योग ।
ed जीवस्थानको मां योग कहे छे३२. अपर्याप्तषट्के कार्मणौदारिकमिश्रौ ।
संक्षि पंचेंद्रिय अपर्याप्त सिवाय बाकीना- सूक्ष्म एकेंद्रिय, बादरएकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय अने असंशिपंचें द्रिय ए छ अपर्याप्ताने विषे कार्मण अने औदारिकमिश्र ए बे काययोग होय छे ।
३३. अपर्याप्तसञ्ज्ञिनः सवैक्रियमिश्रौ ।
संज्ञिअपर्याप्ताने विषे पूर्वोक्त वे योग वैक्रियमिश्र सहित एम त्रण योग होय छे ।
३४. सञ्ज्ञपर्याप्ते सर्वे (योगाः) ।
संक्षिपर्याप्तामां बधा योग होय छे ।
३५. सूक्ष्म औदारिकः ।
३६. चतुर्षु सान्त्यभाषः । ३७. बादरे सवैक्रियतन्मिश्रः ।
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पर्याप्त सूक्ष्म एलियने विवे एकब औदारिककाययोग होय छ।
बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिद्रिय अने असंक्षिपंचेंद्रिय ए चार पर्याप्ताने विषे अंत्य-चोथी भाषा सहित औदारिक एटले ये योग होय छ ।
बादर एकेंद्रिय पर्याप्ताने विषे वैक्रिय अने वैकियमिश्र संहिता मोहारिक योग होय एटले औदारिक, वैकिय भने वैक्रियमिश्र एम प्रण योग होय छ ।
। योगाधिकार समाप्त ।
हवे उपयोगना भेद कहे छे३८. झानाजानदर्शनानि पञ्च-त्रि-चतुषियोगाः ।
जीवनो बोधरूप व्यापार तेने उपयोग कहे छे, तेना बार भेद छे
पच हान-भतिबार, भुतान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवलज्ञान.
प्रण अज्ञान-मत्यवान, शुलाशाल मने विज्ञान भने
चार दर्शन-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने केवलदर्शन.
हवे जीवस्थानोमां उपयोग कहे - . ३९. पर्याप्तसम्झिनि द्वादश ।
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पर्याप्ता संझिने विषे बार उपयोग होय छ। ४०. पर्याप्तचतुरिन्द्रियाऽसज्ञिन्यज्ञानदर्शनद्वयम् ।
पर्याप्ता चउरिद्रिय अने पर्याप्ता असंक्षि पंचेंद्रियमां के अज्ञान अने बे दर्शन एम चार उपयोग होय छे । । ४१. दशस्वचक्षुष्कम् ।
पर्याप्त अने अपर्याप्ता सूक्ष्म एकेंद्रिय, बादर एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, अपर्याप्त चरिंद्रिय अने असंक्षिपंचेंद्रिय ए दसने विषे चक्षुदर्शन विनो एटले अवक्षुदर्शन, मति प्रज्ञान अने श्रुतअज्ञान ए त्रण उपयोग होय छे । ४२. अमनश्चक्षुःकेवलज्ञान-दर्शनान्यपर्याप्ते सज्ञिनि ।
संक्षि अपर्याप्ताने विषे मनःपर्यायज्ञान, चक्षुदर्शन, केवलशान अने केवलदर्शन ए चार विना बाकीना आठ उपयोग होय छे।
। उपयोगाधिकार समाप्त ।
हवे लेश्याना भेद कहे छे४३. कृष्ण-नील-कापोत-तेजः पद्म-शुक्ला लेश्याः ।
कषायोदयरंजित योगपरिणामने लेश्या कहे छे. सेना छ मेद छेकृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पन अने शुक्ल ।
हवे जीवस्थानोमां लेश्या कहे छ- .
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४४. सज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्ते षड् ।
संक्षि पर्याप्ता अने अपर्याप्ता ए बेने विषे छ लेश्या होय । ४५. बादराऽपर्याप्ते प्रथमाश्चतस्रः । ___अपर्याप्त बादर एकेंद्रियने विषे पहेली चार लेश्या होय । ४६. शेषेषु तिस्त्रः ।
पर्याप्त अने अपर्याप्त संक्षिपंचेंद्रिय अने अपर्याप्त बादर एकेंद्रिय वर्जीने शेष-अपर्याप्त अने पर्याप्त सूक्ष्म एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय, असंज्ञिपंचेंद्रिय अने बादरपर्याप्त एकेंद्रिय ए अगीयार जीपस्थानमां कृष्ण, नील अने कापोत ए त्रण लेश्या होय छे ।
। लेश्याधिकार समाप्त ।
__ हवे १४ जीवस्थानमां मूलप्रकृतिना बंध, उदय, उदीरणा अने सत्ता कहे छे- . ४७. सप्ताष्ट बन्धोदीरणे सत्ताउदयेऽष्टौ शेषेषु __(त्रयोदशसु)।
संक्षि पर्याप्तने वर्जीने तेर जीवस्थानमा सात अथवा आठ कर्मनो बंध, तथा सात अथवा माठ कर्मनी उदीरणा होय, तथा सत्ता अने उदयमां आठेय कर्म होय छे । ४८. सप्ताष्टषडेकबन्धोऽष्टसप्तचतुरुदयसत्तः सप्ताष्टषट्
पञ्चद्वयोदीरणः सञ्जिपर्याप्तः।
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૧૩
संज्ञि पर्याप्तामां सात, आठ, छ अने एक कर्मनो बंध होय, तथा सत्ता अने उदय, सात आठ अने चार कर्मनो होय, तथा उदीरणा, सात आठ पांच अने बे कर्मनी होय छे ।
हवे मार्गणास्थानो कहे छे
४९. गति - जाति - काय - योग - वेद- कषाय - ज्ञान - संयमदर्शन - लेश्या-भव्य- सम्यक्त्व - सञ्झ्याSS-हारमार्गणाश्चतुः - पञ्च - षट् - त्रि - त्रि- चतुरष्ट - सप्त - चतुः - षड् द्वि-षड्-द्वि-द्वि मेदाः ।
गति, जाति, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञि अने आहार मार्गणाना अनुक्रमे चार, पांच, छ, त्रण, त्रण, चार, आठ, सात, चार, छ, बे, छ, बे अने ये भेद छे. ते आ प्रमाणे
गति - ४ - देवगति, मनुष्यगति, तिर्यचगति अने नरकगति । जाति -५ - पकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय अने पंचेंद्रियजाति ।
काय - ६ - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय अने त्रसकाय ।
योग - ३ - मनोयोग, वचनयोग अने काययोग |
वेद - ३ - पुरुषवेद, स्त्रीवेद अने नपुंसकवेद । कषाय- ४ - क्रोधकषाय,
मानकषाय,
लोभकषाय ।
मायाकषाय
अने
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शान-८-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान,
केवलज्ञान, मत्यशान, श्रुताशान भने विभंग
शानः। संयम-७-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि,
सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात, देशविरति अने
अविरति। दर्शन-४-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने
___ केवलदर्शन । लेश्या-६-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजो
लेश्या, पद्मलेश्या अने शुक्ललेश्या । भव्य-२-भव्य अने अभव्य । सम्यक्त्व-६-औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, सास्वा
दन, मिश्र अने मिथ्यात्व । संक्षि-२-संशी अने असंझी । आहार-२-आहार अने अणाहार ।
हवे मार्गणाने विषे जीवस्थान कहे छे५०. सुरनरकविभङ्गमति श्रुतावधिज्ञानदर्शनायिकौपशमि
कक्षायोपशमिकसज्ञिपमशुक्लासु पर्याप्ताऽपर्याप्तसञ्जिनौं ।
देवगति, नरकगति, विभंगज्ञान, मतिज्ञान, भुतज्ञान, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन; क्षायिक, औपशमिक अने क्षायोपशमिकसम्यक्त्व, संक्षि, पमलेश्या भने शुक्ललेश्या ए तेर
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૫
सार्गणाने मिषे पर्याप्त यि अने अपर्याप्तमंशिपंचेंद्रिय बे जीवना भेद होय छे ।
५१. नरे सास पर्याप्तौ ।
मनुष्धतिमार्मणामां असंही अर्थास सहित से (बे) एटले पंचेंद्रिय संधि पर्यापतो अने अपर्याप्तो तथा अभिपर्याप्तो एम ऋण जीवना भेद होय छे ।
५२. तेजस्यां सवादरापर्याप्तौ ।
तेजोलेश्यामां बापकेंद्रिय अपर्याप्तसहित ते (ये) पटले संशि पर्याप्तो अने अपर्याप्तो तथा बादर एकेंद्रिय अपर्याप्त प त्रण जमाना मेद्र होय छे ।
५३. स्थावरे एकेन्द्रिये प्रथमानि चत्वारि |
(पांच) स्थावर कामां अने एकेंद्रियज्ञातिमा पहेला चार जीवस्थान होय, ते आ-सूक्ष्मपर्याप्तो अने अपर्याप्तो तथा बादर पर्याप्तो अने अपर्याप्तो ।
५४. असञ्ज्ञिनि प्रथमानि द्वादश ।
असशिमां पहेला बार (संज्ञि पर्याप्तो भने अपर्याप्तो ए ये वर्जी) जीवस्थान होय ।
५५. विकले द्वे द्वे ।
विकलेंद्रिय - बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चटरिद्वियमां बे जीवस्थान ते आ-पर्याप्तो अने अपर्याप्तो।
५६. से अन्त्यानि दश ।
串
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प्रसकायमां छेल्ला दस जीवस्थान होय ते आ-बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिद्रिय, असंझिपचेंद्रिय अने संक्षिपंचेंद्रिय ए पांच पर्याप्ता अने अपर्याप्ता एम दस। . ५७. अयताऽऽहारतियक्तनुकषायाज्ञानद्वयप्रथमलेश्यात्रिक
भव्याऽभव्याऽचक्षुःनपुंसकमिथ्यात्वे सर्वाणि ।
अयत-अविरति, आहारी, तिर्यंचगति, काययोगी, ४ कषायी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, प्रथमलेश्यात्रिक-कृष्ण, नील अने कापोत, भव्य, अभव्य, अचक्षुदर्शनी, नपुंसकवेदी, अने मिथ्यात्वी एमां बधा जीवस्थानो होय । ५८. केवलज्ञानदर्शनसंयमपञ्चकमनोज्ञानदेशमनोमिश्रे
संज्ञिपर्याप्तः ।
केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, संयमपञ्चक-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय अने यथाख्यातसंयमी-चारित्री, मनःपर्यवज्ञानी, देशविरति. मनोयोगी, अने मिश्रसम्यक्त्वी एमां संक्षिपर्याप्त जीवस्थान होय । ५९. वचनेऽन्त्यपर्याप्तपञ्चकम् । __वचनयोगीमां छेल्ला पांच पर्याप्ता ते-पर्याप्त बेइंद्रिय, पर्याप्त तेहंद्रिय, पर्याप्त चरिंद्रिय तथा पर्याप्त संज्ञी अने असंज्ञो पंचेंद्रिय जीवस्थान होय । ६० चक्षुषि त्रिकम् ।
चक्षुदर्शनीने विषे छेल्ला त्रण-चउरिंद्रिय, संशी पंचेंद्रिय अने असंही पंचेंद्रिय जीवस्थान होय ।
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६१. स्त्रीनरपश्चाक्षे चत्वारोऽन्त्याः । ___ स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी अने पंचेंद्रिय ए वणने विषे छेल्ला असंशी पंचेंद्रिय अने संशी पंचेंद्रिय ए बे अपर्याप्ता अने पर्याप्ता एम चार जीवस्थान होय । ६३. अनाहारेऽपर्याप्तषट्कं ससज्ञिद्वयम् । ___ अनाहारीने विषे बे संशीसहित छ अपर्याप्ता एटले संझी अपर्याप्तो अने पर्याप्तो, सूक्ष्म एकेंद्रिय, बादर एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिद्रिय अने असंझी पंचेंद्रिय ए छ अपर्याप्ता एम आठ जीवस्थान होय । ६३. असूक्ष्मापर्याप्तं सास्वादने ।
सास्वादनसमकितीमां सूक्ष्म एकेंद्रिय अपर्याप्ता विना पूर्वोक्त सात भेद होय ।।
हवे मार्गणास्थानोमा गुणस्थान कहे छे६४. तिरश्चि सुरनारके नरसज्ञिपश्चेन्द्रियभव्यत्रसे एक
विकलभूदकवृक्षे तेजोवाय्वभव्ये वेदत्रिकषाये लोमेऽयतेऽज्ञानत्रिके चक्षुरचक्षुषोर्यथाख्याते मनोज्ञाने सामायिकच्छेदे परिहारे केवलद्विके मतिश्रुतावधिद्विक औपशमिके वेदके क्षायिके मिथ्यात्वत्रिके देशसूक्ष्मसम्पराये योगाहारशुक्ललेश्यास्वसचित्रिद्धिलेश्यानाहारे ।
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पञ्च- चतुः - सर्व - द्वये - क - नव - दश- चतु - स्त्रिद्वादशा- न्त्यचतु- र्यतादिसप्त- चतु -- द्व - न्त्यद्वयता दिनवा - ष्ट - चतु - रेकादशाऽऽद्य - त्रि- स्व-स्वत्रयोदश-द्वि-षट् - सप्त- प्रथमान्त्ययुग्म - युगयत इति गुणाः ।
तिर्यंचगतिमां प्रथमना पांच गुणस्थान. देवगति अने नरकगतिमां प्रथमना चार गुणस्थान. मनुष्यगति, संज्ञिपंचें द्विय, भव्य अने सकायमां बधा गुणस्थान. एकेंद्रिय, विक लेंद्रिय, पृथ्वीकाय, अपूकाय अने वनस्पतिकायमां प्रथमना बे गुणस्थान. ते काय, वायुकाय अने अभव्य मां प्रथमनुं एक गुणस्थान. प्रणवेद - स्त्रीवेद पुरुषवेद नपुंसक वेद, क्रोध, मान अने मायामां प्रथमना नव. लोभमां दश. अयत-अविरतमां प्रथमना चार मति अज्ञान, भुत अज्ञान अने विभंगज्ञानमां प्रथमना त्रण. चक्षुदर्शन अने अचक्षुदर्शनमां प्रथमना बार गुणस्थान. यथाख्यातचारित्रयां छेल्लां चार गुणस्थान. मन -: पर्यायज्ञानमां प्रमत्त आदि सात गुणस्थान. सामायिक अने छेदोपस्थापनीय चारित्रमां प्रमत्तआदि चार परिहारविशुद्विचारित्रमां प्रमत्तआदि बे. केवलज्ञान अने केवलदर्शनमां छेल्लां बे गुणस्थान. मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अने अवधिदर्शनमी अविरतसम्यग्दष्टि आदि नव. औपशमिकसम्यक्त्वमां अविरतसम्यग्दृष्टि आदि आठ. वेदक-क्षयोशम-सम्यक्त्वमां अविरतसम्यग्दृष्टि आदि चार, क्षायिकसम्यक्त्वमां अविरतसम्यग्दृष्टि आदि अगियार. मिथ्यात्वत्रिक - मिथ्यात्व, सारबादन
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अने मिश्रदृष्टिमां अनुक्रमे पहेलुं बीजं अने त्रीजु गुणस्थान. देशविरतमां पांच मुं. सूक्ष्मसंपरायचारित्रमा दशभु गुणस्थान. मनोयोग, वचनयोग, काययोग, आहारमार्गणा अने शुक्ललेश्यामा प्रथमना तेर गुणस्थान. असं शिमां प्रथमनां बे. कृष्ण, नील अने कापोत लेश्यामा प्रथमना छ. पद्म अने शुक्ललेश्याम प्रथमना सात. अनाहारमा प्रथमना बे, छेल्लां बे सहित अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानक होय छे.
हवे मार्गणास्थानोमां योग कहे छे६५. अनाहारे, नरगति-पञ्चेन्द्रिय-त्रस-काया-ऽचक्षु-नर
नपुंसक-कषाय - क्षायिक - क्षायोपशमिकसम्यक्त्वसज्ञि-लेश्याषट्काऽऽहार-भव्य-मति-श्रुताऽ-वधिद्विके, तिर्यगयत-स्त्री-सास्वादन-त्र्यज्ञानोपशमाऽभव्य-मिथ्यात्वे सुरनरके स्थावर एकाक्षे पवनेऽसज्ञिनि विकले मनो-वचः-सामायिक-च्छेदचक्षु-मनोज्ञाने केवलद्विके परिहार-सूक्ष्मे मिश्रे देशे यथाख्याते कार्मण-सर्वा-ऽऽहारकद्विकोनौ-दारिकद्विकोन-कार्म
णौदारिकद्विक-सवैक्रियद्विका-ऽन्त्यवाग्युग् – वैक्रियद्विकोना-कार्मणौदारिकमिश्र-साधाऽन्त्यमनोवागौदा
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२०
रिककार्मण - समनोवचश्चतुष्कौदारिक - सवैक्रिय
सवैक्रियद्विक-सकामणौदारिकमिश्रा योगाः । अनाहारमार्गणामां कार्मणकाययोग मनुष्यगति, पंचेंद्रियजाति, प्रसकाय, काययोग, अचक्षुदर्शन, पुरुषवेद,नपुंसकवेद,क्रोध,मान, माया, लोभ, क्षायिकसमकिती, क्षायोपशमिकसमकिती संशी,छ लेश्या,आहारक,भव्य,मतिज्ञान,श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अने अवधिदर्शन मार्गणाओमां पंदर योग. तिर्यचगति, स्त्रीवेद, अविरत, सास्वादनसम्यक्त्व, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान, उपशमसम्यक्त्व, अभव्य अने मिथ्यात्वमा आहारकद्विक-आहारक अने आहारकमिश्रविना तेर योग. देवगति अने नरकगतिमां ए तेर औदारिकद्विक-औदारिक अने औदारिक मिश्रविना अगियार योग पृथ्वीकाय, अकाय, ते उकाय अने वनस्पतिकायमां कार्मण अने औदारिकद्विक एम त्रण योग. एकेंद्रिय अने वायुकायमां पूर्वोक्त त्रण अने वैक्रिय द्विक एम पांच योग. असं शिमां ते पांच असत्यामृषारूप अंत्यवचनयोग सहित छ योग. बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चरिंद्रियमां ते छ वैक्रियद्विकरहित चार योग. मनोयोग, वचनयोग, सामायिक, छेदोपस्थापनीय चारित्र, चक्षुदर्शन अने मनःपर्यायज्ञानमां कार्मण अने औदारिकमिश्ररहित बाकी तेर योग. केवलज्ञान अने केवलदर्शनमा प्रथम अने अंत्य मनोयोग अने वचनयोग लहित औदारिक अने कार्मणकाययोग एम सात योग. परिहारविशुद्धि अने सूक्ष्मसंपरायचारित्रमा मनना अने वचनना चार चार योग सहित औदारिककाययोग एम नव योग. मिश्रप्तमकितमा ते नव योग वैक्रियकाययोग सहित दश योग. देशविरतमा
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२१
ते व वैक्रियद्विक सहित अगियार योग. यथाख्यातचारित्रमां तेज नव योग, कार्मण अने औदारिकमिश्रयोगसहित अगियार योग होय.
हवे मार्गणास्थानोमां उपयोग कहे छे६६. सुरतिर्यग्नरकायते त्रसयोगवेदशुक्लाहारनरपञ्चेन्द्रियसञ्ज्ञिभव्ये चक्षुरचक्षुले श्यापञ्चककषाये चतुरक्षासज्ञिनि एकद्वित्र्यक्षस्थावरे त्र्यज्ञानाभव्यमिध्यात्वसास्वादने केवलद्विके क्षायिकयथाख्याते देशे मिश्र - नाहारे ज्ञान संयमचतुष्कोपशमवेदकावधिदर्शनेमनः केवलद्विक - सर्वाsकेवलद्विका - ज्ञानदर्शनद्विकाऽचक्षुस्त्र्यज्ञानदर्शनद्वय - स्वद्विका - नज्ञानत्रिक - दर्शनज्ञानत्रिकसाज्ञानाऽचक्षुर्मनोज्ञानज्ञानचतुष्कदर्शन त्रिका
उपयोगाः ।
देवगति, तिर्यचगति, नरकगति अने अविरतमां मनःपर्याय अने केवलद्विक - केवलज्ञान अने केवलदर्शन बिना नव उपयोग. त्रसकाय, योग- मन, वचन अने काया वेद-स्त्री, पुरुष अने नपुंसक, शुक्ललेश्या, आहार, मनुष्यगति, पंचेंद्रियजाति, संज्ञी अने भव्यमां बार उपयोग. चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, कृष्णादि पांच लेश्या अने क्रोध आदि चार कषायमां केवलद्विकबिना दश उपयोग. चउरिंद्रिय अने असंशिमां बे अज्ञानमतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञान अने बे दर्शन-चक्षुदर्शन भने
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२२
अचक्षुदर्शन पम चार उपयोग. एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, इंद्रिय अने स्थावरमां ते चार चक्षुदर्शन रहित त्रण उपयोग. त्रण अज्ञान - मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान अने विभंगज्ञान, अभव्य, मिथ्यात्व अने सास्वादनमां त्रण अज्ञान अने बे दर्शन-चक्षुदर्शन अने अचक्षुदर्शन एम पांच उपयोग केवलद्विक ज्ञान केवलदर्शन एम बे उपयोग. क्षायिकसम्यक्त्व अने यथाख्यातचारित्रमां अज्ञानत्रिक-मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान अने विभंगज्ञान विना नव उपयोग. देशविरतमां त्रण दर्शन-चक्षु अचक्षु अने अवधिदर्शन अने त्रण ज्ञान - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञान एम छ उपयोग. मिश्रदृष्टिमां तेज त्रण दर्शन अने त्रण ज्ञान अज्ञानसहित होय. अनाहारमां चक्षुदर्शन अने मनःपर्यायज्ञान विना दस उपयोग. ज्ञान चतुष्क - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, अने मनःपर्यायज्ञान, संयमचतुष्क- सामायिक चारित्र, छेोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म संपराय चारित्र, उपशमसमकित वेदक- क्षायोपशमिकसमकित अने अवधिदर्शनने विषे ज्ञानचतुष्क - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अने मनःपर्यायज्ञान अने दर्शनत्रिक-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन अने अवधिदर्शन एम सात उपयोग होय.
हवे मार्गणास्थानोमां लेश्या जणावे छे - ६७. एकाक्षासञ्ज्ञिभूदकवृक्षे नारकविकलाग्निवाते यथाख्यातसूक्ष्म - केवलद्विके शेषे चतुस्त्रिशुक्लषड्लेश्याः ।
एकेंद्रिय, असंज्ञी पृथ्वीकाय, अष्काय अने वनस्पतिकायमां प्रथम चार लेश्या नारकी, विकलेंद्रिय, अग्निकाय अने
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वायुकाय मां पहेली त्रण लेश्या. यथाख्यात, सूक्ष्मसंपरायचारित्र, केवलज्ञान अने केवलदर्शनमां शुक्ललेश्या. शेष-बाकी देवगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, पंचेंद्रिय, त्रसकाय, त्रण योग, त्रण वेद, चार कषाय, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, देशविरत, अविरत, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, भव्य, अभव्य, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औषशमिक, सास्वादन, मिश्र, मिथ्यात्व, संज्ञी, आहारक अने अनाहारक ए एकतालीश मार्गणामा छ लेश्या होय छे.
हवे मागणास्थानोमा पोताना स्थाननी अपेक्षाए अल्पबहुत्व प्ररूपे छे६८. (नर-नारक-देव-तियश्चः) स्तोकाऽसङ्ख्यद्विकाऽन
न्तगुणाः ।
मनुष्यो, नारकी देवता अने तिर्यंचोथी थोडा होय छे. तेथी नारकी असंख्यातगुण तेथी देवता असंख्यातगुणा अने तेथी तिर्यचो अनंतगुण होय छे.
हवे इंद्रियद्वारमा अल्पब हुत्व कहे छे६९. पञ्चचतु स्त्रिद्वयेकाक्षाः) स्तोकाधिकत्रयाऽनन्तगुणाः । ___ पंचेंद्रिय थोडा, तेथी चउरिंद्रिय विशेषाधिक, तेथी बेइंद्रिय विशेषाधिक अने तेथी एकेंद्रिय अनंतगुण होय छे
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हवे कायद्वारमा अल्पबहुत्व जणावे छे७०. सस्तोकाग्न्यसङ्ख्यपृथ्व्यब्वावधिकवृक्षाऽनन्तगुणाः।
त्रसकाय थोडा, तेथी अग्निकाय असंख्यातगुणा, तेथी पृथ्वीकाय विशेष अधिक, तेथी अपकाय विशेष अधिक, तेथी वायुकाय विशेष अधिक अने तेथी वनस्पतिकाय अनंतगुणा होय छे.
हवे योगद्वारमा अल्प बहुत्व जणाधे छे७१. (मनोवाक्काययोगवन्तः ) स्तोकाऽसः ख्याऽनन्त
गुणाः । मनोयोगवाला थोडा छे, तेथी वचनयोगवाला असंख्यातगुणा अने काययोगवाला तेथी अनंतगुणा होय छे.
हवे वेदद्वारमा अल्पबहुत्व कहे छे७२. (पुंस्त्रिक्लीवाः) स्तोकसङ्ख्याऽनन्तगुणाः ।
पुरुषो थोडा. तेथो स्त्रिओ संख्यातगुण तेथी नपुंसक अनंतगुणा छे,
हवे कषायद्वारमा अल्पबहुत्व कहे छे७३. मानि-क्रोधि-मायि-लोभिनो अधिकाः (क्रमेण) ।
मानी थोडा, तेथी क्रोधी विशेष अधिक, तेथी मायी विशेष अधिक अने तेथी लोभी विशेष अधिक होय छे.
हवे शानद्वारमा अल्पबहुत्व जणावे छे७४. मनोज्ञानस्तोकाऽवध्यऽसङ्ख्यमतिश्रुतसमाधिकविभ
ङ्गाऽसङ्ख्यकेवल्यनन्तमतिश्रुताऽज्ञानसमाऽनन्तगुणाः।
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मनःपर्यायज्ञानी थोडा, तेथी अवधिज्ञानी असंख्यातगुणा, तेथी मतिज्ञानी-श्रुतज्ञानी विशेष अधिक परस्पर सरखा, तेथी विभंगहामी असंख्यातगुणा, तेथी केवलज्ञानी अनंतगुणा अने तेथी मतिमज्ञानी-श्रुतअज्ञानी अनंनगुणा माहोमांहे सरखा.
हवे संयमद्वारमा अल्पबहुत्व जणावे छे७५. सूक्ष्मस्तोक-परिहार-यथाख्यातसङ्ख्य-च्छेद-सामा
यिकसङ्ख्य-देशाऽसङ्ख्याऽयताऽनन्तगुणाः ।
सूक्ष्मसंपरायसंयमी थोडा, तेथी परिहारविशुद्धिवाला संख्यातगुणा तेथी यथास्यातचारित्रवाला संख्यातगुणा तेथी छेदोपस्थापनीयचारित्रगला संख्यातगुणा, तेथी सामायिकचारित्रवाला संख्यातगुणा, तेथी देशविरत असंख्यातगुणा, तेथी अविरत अनन्तगुणा होय छे.
हवे दर्शनद्वारमा अल्पबहुत्व कहे छे७६. अवधिस्तोक-चक्षुरसङ्ख्य-केवला-ऽचक्षुरनन्तगुणाः।
अवधिदर्शनवाला थोडा, तेथी चक्षुदर्शनवाला असंख्या. तगुणा; तेथी केवलदर्शनवाला अनंत गुणा अने तेथी अचक्षु. दर्शनवाला अनंतगुणा होय छे
हवे लेश्याद्वारमा अल्पबहुत्व कहे छे७७. उत्क्रमाव-स्तोक-सङ्ख्यद्विकानन्तद्विकाधिका लेश्याः।
पश्चानुपूर्गथी लेश्या कहेवी शुक्ललेश्या, पालेश्या,
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तेजोलेश्या, कापोतलेश्या, नीललेश्या अने कृष्णलेश्या. तेमां शुक्ललेश्यावाला थोडा, तेथी पद्मलेश्यावाला संख्यातगुण तेथी तेजोलेश्यावाला संख्यातगुणा,तेथी कापोतलेश्यावाला अनंत गुणा, तेथी नीललेश्यावाला विशेष अधिक अने तेथी कृष्णलेश्यावाला विशेष अधिक होय छे.
___ हवे भव्यद्वारमा अल्पबहुत्व जणावे छे७८. अभव्यस्तोकेतराऽनन्ताः । अभव्य थोडा, तेथी भव्य अनंतगुणा होय छे.
हवे सम्यक्त्वद्वारमा अल्पबहुत्व जणावे छे७९. सास्वादनस्तोकौपशमिक-मिश्रसङ्ख्यवेदकाऽसङ्ख्य
क्षायिक-मिथ्यात्वाऽनन्ताः । सास्वादन समकिती थोडा, तेथी औपशमिक समकिती संख्यातगुणा, तेथी मिश्रसमकिती संख्यातगुणा, तेथी. वेदकक्षायोपशमिक समकिती असंख्यातगुणा, तेथी क्षायिकसमकिती अनंतगुणा अने तेथी मिथ्यादृष्टि अनंतगुणा होय छे.
हवे संज्ञीद्वारमा अल्पबहुत्व कहे छे८०. सज्ञिस्तोकेतरानन्ताः । संशी जीवो थोडा, तेथी असंज्ञो अनंतगुणा.
हवे आहारद्वारमा अल्बहुत्व कहे छ८१. अनाहारस्तोकेतरासङ्ख्याः ।
अनाहारी जीवो थोडा, तेथी आहारी असंख्यातगुणा.
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२७
हवे कर्मबंधना हेतुओ कहे छे८२. मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा बन्धहेतवः ।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग ए चार कर्मबंधना हेतुओ छे. ... हवे गुणस्थानोमां बंधना मूलहेतुओने विचारे छे८३. एक-चतुः-पञ्च-त्रिगुणेषु चतुस्त्रिद्वयेकप्रत्ययो बन्धः ।
एक-प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानमां-मिथ्यात्व,अविरति,कषाय अने योग ए चार बंध हेतुओ होय छे; सास्वादन, मिश्र, अविरत अने देशविरत ए चार गुणस्थानोमां-अविरति, कषाय, अने योग ए प्रण बंध हेतुओ होय छे प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर अने सूक्ष्मसंपराय ए पांच गुणस्थानोमां-कषाय अने योग ए बे बंध हेतुओ होय छे अने उपशांतमोह, क्षीणमोह भने सयोगिकेवली ए त्रण गुणस्थानोमां एक योग ज बंध हेतु छे. ८४. अभिग्रहेतराभिनिवेशसंशयानाभोगज- मनइन्द्रियाऽ
नियम-षड्जीववध - कषायनोकषाय-सत्यमनआया
अजिनाहारकद्विकबन्धहेतवः ।
आभिग्रहिक,अनाभिग्रहिक, अभिनिवेशिक, सांशयिक अने अनाभोग ए पांच मिथ्यात्व; मन अने पांच इंद्रियोनो असंयम तथा पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, वनस्पति अने त्रस जीवोनी हिंसा ए बार अधिरति; अनंतानुबंधि क्रोध विगेरे सोल कषाय तथा हास्यादि छ अने प्रण वेद ए नव नोकषाय, एम पचीस कषाय; सत्यमन आदि पंदर योग एम सत्तावन जिन
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नाम अने आहारकटिक वर्जी शेष प्रकृतिओना बंधना हेतुओ छे. जिननाम अने माहारकद्विक समकित अने संयमथी बंघाय छे माटे एनुं वर्जन कयु. ८५. न सम्यक्त्वमिश्रवन्धनसङ्घातानाम् ।।
समकितमोहनीय अने मिश्रमोहनीयनो बंध होतो नथी, बंधननो अने संघातमनो औदारिक आदि शरीरमा समावेश थतो होवाथी ए प्रकृतिओ बंधमा प्रहण करी नथी. ८६. कृष्णादिविंशतौ वर्णगन्धरसस्पर्शाः ।।
कृष्णवर्णनाम आदि वीस प्रकृतिमोमांथी वर्णनाम, रसनाम, गंधनाम अने स्पर्शनाम ए चार प्रकृतिओ बंधमा गणवानी छे.
हवे गुणस्थानोमां प्रकृतिबंध जणावे छे८७. अजिनाहारकद्विको-ऽनरकत्रिकजातिस्थावरचतुष्क -
हुण्डातपसेवार्तनपुंसकमिथ्यात्वो-ऽतिर्यक्स्त्यानद्धिदौर्भाग्यत्रिकानन्तकषायमध्यसंस्थानसंहननचतुष्कनीचोद्योताशुभगमस्च्यायुर्द्विकः सतीर्थायुर्द्विको-ऽवज्रनरत्रिकाप्रत्याख्यानौदारिकद्विको-ऽप्रत्याख्यानावरणोऽशोकारत्यस्थिरद्विकायशोऽसातः साहारकद्विको-ऽसुरायुष्काद्याऽनिद्राद्विकपडसुरद्विकपश्चेन्द्रियशुभगमत्रसनवाऽनौदारिकतनूपाङ्गसमनिर्माणजिनवर्णागुरुल
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घुचतुष्कसप्तमो-ऽहास्यरतिकुत्साभय-प्रथमो-ऽपुंवेदान्त्य-क्रोधादिचतुर्भागोऽलोभसूक्ष्मान्तादर्शनचतुष्कज्ञानावृत्यन्तरायो-च्चयशस्काः । (त्रिषु सातः) बंधमां ओघे १२० प्रकृति होय छे. ते आ प्रमाणे-शानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ९, वेदनीय २, मोहनीय २६, आयुष्य ४, नामकर्म ६७, गोत्र २ अने अंतराय ५, ए सर्व मली १२० । मिथ्यात्वगुणस्थानमा जिननाम, आहारक अने आहारक अंगोपांग सिवाय ११७ प्रकृति बंधमां होय । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानना अंतमां-नरकत्रिक-नरकगति नरकानुपूर्वी अने नरकायुष्य, जातिचतुष्क-एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चरिंद्रियजाति, स्थावरचतुष्क-स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारण, हुंड, आतप, सेवार्त, नपुंसकवेद अने मिथ्यात्व ए सोल प्रकृति व्युच्छेद जाय एटले सास्वादनगुणस्थानमां १०१ प्रकृति बंधाय । सास्वादनना अंतमां-तिर्यंचत्रिक-तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी अने तिर्यंचायुष्य, स्त्यानद्धित्रिक-निद्रानिद्रा, प्रवलाप्रचला अने स्त्यानद्धि, दौर्भाग्यत्रिक-दुर्भग, दुःस्वर अने अनादेय, अनंतचतुष्क-अनंतानुषंधी क्रोध, मान, माया अने लोभ, मध्यसंस्थान चतुष्क-न्यग्रोध, सादी, वामन अने कुब्ज, मध्यस हननचतुष्क-ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच अने कीलिका, नीचगोत्र, उद्योत, अशुभगम-अशुभविहायोगति, स्त्रीवेद, आयुर्द्विक-मनुष्यायुष्य अने देशायुष्य ए सत्तावीस प्रकृतिओनो अंत थवाथी ए लिवाय मिश्रगुणस्थानमांचुम्मोतेर बंधाय । ते चुम्मोतेर तीर्थ करनाम अने आयुर्द्विकमनुष्यायुष्य अने देवायुष्य (७४) सहित ७७ अविरतसम्य
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ष्टिगुणस्थान मां बधाय । अविरत - गुणस्थानने अंते वज्रऋष भनाराच संघयण, नरत्रिक - मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी अने मनुष्यायुष्य, अप्रत्याख्यानी चार कषाय, अने औदारिकद्विक औदारिकशरीर अने औदारिकअंगोपांग ए दस प्रकृतिओनो अंत थाथी ए विना देशविरत गुणस्थानमां सडसठ (६७) बधाय । देश विरतने अंते प्रत्याख्यानावरण चार कषायनो अंत थमाथी ए विना प्रमत्त गुणस्थानमा ६३ बंधाय । प्रमत्तने अंबे शोक, अरति, अस्थिर द्विक-अस्थिर अने अशुभनाम, अपजश अने असातावेदनीय . ए छ प्रकृतिओनो अंत थवाथी ए छ प्रकृति रहित अप्रमत्त गुणस्थानमां आहारकद्विक सहित ५८ जो आयुष्य बंधाय तो ५९. बंधाय । अपूर्वकरणगुणस्थानना कालना सात भाग करवा, तेमां प्रथमसप्तमभागमां देवायुष्यरहित ५८ बंधाय । प्रथमसप्तमभागना अंतमां निद्राद्विकनो अंत थवाथी, बीजा, श्रीना, चोथा, पांचमा अने छट्टा सप्तमभागमां ५६ बधाय | छठ्ठा सप्तमभागने अंते देवद्विक, पंचेंद्रियजाति, शुभविहायोगति, त्रसनव-त्रल, बाहर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर अने आदेय, वैकिय, आहारक, तेजस अने आहारक अंगोपांग, समचतुरस्र, निर्माण, जिननाम, वर्ण-गंधरख - स्पर्शनाम, अगुरुलघु, उपघात, पराघात अने उच्छ्रबास ए तीस प्रकृतिओनो अंत थवाथी सातमा सप्तमभागमां २६ बंधाय । सातमा सप्तमभागना अंते हास्य, रति, कुत्सा अने भयनो व्यवच्छेद थवाथी अनिवृत्तिबादरना पांच भाग छे तेना प्रथम भागमा २२ बंधाय । बोजा भागमा पुरुषवेदरहित २१, बीजे भागे अंत्य संम्वलन क्रोध विना २०, चोथे भागे संज्वलन मान रहित १९, अने पांचमे भागे संज्वलन माया
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૩૧ रहित १८ नो बंध होय । त्यारपछी लोभ जपाथी १७ नो बंध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के होय । हवे.सूक्ष्मसंपरायने अंते दर्शनचतुष्क-चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, मतिज्ञानावरण, भुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, दानातराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्या तराय, उच्चगोत्र अने जशनामकर्म ए सोल प्रकृतिनो अंत थवाथी उपशांतमोह, क्षीणमोह अने सयोगी ए त्रण गुणस्थाने एक सातावेदनीयनो बध होय, पछी सयोगी गुणस्थानने अंते सातावेदनीयना बंधनो अंत थाय छे. पछी आत्मा अबंध रहे छ ।
हवे नरकगतिमां बधस्वामित्व कहे छे८८. अनन्त्ये नरके सुरवैक्रियाहारकद्विकदेवायुनरकसूक्ष्म
विकलत्रिकैकेन्द्रियस्थावराऽऽतपा न । . रत्नप्रभा आदि त्रण नरकमां देवद्विक, वैक्रियद्विर, आहारकद्विक, देवायुष्य, नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकेंद्रिय, स्थावर अने आतप ए ओगणीश प्रकृति विना शेष १०१ प्रकृति ओघे बधमां होय ।। ८९. नरकोऽजिनो मिथ्यात्वे ।
मिथ्यात्वगुणस्थानमां जिन नाम विना १०० नो बध होय । ९०. अनपुंमिथ्यात्वहुण्डसेवातः सास्वादने ।
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सास्वादनगुणस्थानमां नपुंसकवेद, मिथ्यात्व, हुंड अने सेवात ए विना ९६ बधमां होय । ९१. अनन्तमध्याकृतिसंहननाऽशुभगमनीचस्त्रीदौर्भाग्य
स्त्यानगृद्धित्रिकोद्योततिर्यद्विकतिर्यग्नरायुष्को [ नरौदारिकद्विकऋषभो] मिश्रे । मिश्रगुणस्थानमा अनंतानुबंधिचतुष्क, न्यग्रोध, सादि, वामन अने कुब्ज ए चार संस्थान, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच अने कीलिका ए चार संघयण, अशुभविहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दौर्भाग्य, दुःस्वर, अनादेय, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रथला, थीणद्धि, उद्योत, तिर्यचद्विक नियंचनुं आयुष्य अने मनुष्यनु आयुष्य ए छवीश प्रकृति विना ७० बंधाय । ९२. सजिननरायुष्कोऽयते । ___ अविरत सम्यक्त्वगुणस्थानमां जिननाम अने मनुष्यायुष्य सहित ९२ प्रकृति बधाय । .९३. पकातो न तीर्थम् ।
पंकप्रभा आदि प्रण नरकमां तीर्थकरनामनो बध न होय तेथी त्यां मोघे १००, मिथ्यात्वे १००, सास्वादने ९६, मिश्रे ७०, सम्यक्त्वे ७१, बंधा होय । ९४. माधवत्यां नरायुः ।
सातमी नरकमां मनुष्यायुष्यनो पण बंध न होय तेथी त्यां ओधे ९९ बंधाय । .
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33 ९५. नरद्विकोच्चौ मिथ्यात्वे ।
मिथ्यात्वगुणस्थानमां मनुष्यद्विक अने उच्चगोत्र ए न बंधाय तेथी प्रण विना ९६ नो बंध होय ।। ९६. तिर्यगायुर्नपुंश्चतुष्कं सास्वादने ।
सास्वादन गुणस्थानमां तिर्यचन आयुष्य अने नपुंचतुष्क-नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुडसंस्थान अने छेवटुं संघयण न बंधाय तेथी ए पांच विना ९१ बंधाय । ९७. अनन्तचतुर्विंशतिर्मिश्रद्विके सनरद्विकोच्चः ।
मिश्र भने अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमा अनंतानुबधि आदि चोवीस प्रकृति विना-अनंतानुबंधिचतुष्क, मध्यमसंस्थान ४, मध्यमसंघयण ४, अशुभबिहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दौर्भाग्यत्रिक, थीणद्धित्रिक, उद्योत अने तिर्यचद्विक विना नरद्विक अने उच्चगोत्रसहित ७० प्रकृति बंधाय ।
___ हवे तिर्यंचगतिमां बध कहे छे९८. तिरश्चि पर्याप्तोऽनरकषोडशकः सास्वादने ।
तिर्यंचगतिमां पर्याप्तातिर्य चने (ओघे अने मिथ्यात्वे जिननाम अने आहारकद्विक विना ११७ नो बंध होय) सास्वादनमां नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक; एकेंद्रिय, स्थावर, भातप, नपुसकवेद, मिथ्यात्व, हुड अने छेवटुं ए सोल प्रकृति विना १०१ प्रकृतिनो बध होब ।
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९९. असुरायुरनन्तैकत्रिंशो मिश्रे ।
मिश्रे देवायुष्य अने अनंतानुबंधी आदि एकत्रीस-अनंतानुबंधी ४, मध्यमसंस्थान ४, मध्यमसंघयण ४, अशुभविहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दुर्भगत्रिक, थीणद्धित्रिक, उद्योतनाम, तिर्यचद्विक, तिर्यचायुष्य, मनुष्यायुष्य, मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक अने वनऋषभनाराच संघयण एम बत्रीश विना ६९ प्रकृति बंधाय । १०० ससुरायुरयते । ___अविरतगुणस्थानमा देवायुष्य सहित ७० प्रकृति बंधाय। १०१ अद्वितीयकषायो देशे ।
देशविरतगुणस्थानमां अप्रत्याख्यानीय चार कषाय विना ६६ प्रकृति बांधे। १०२ अपर्याप्तोऽजिनकादशः । __अपर्याप्ता तिर्यच अने मनुष्य, जिननाम आदि अगीयारजिननाम, देवद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, देशयुष्य अने नरकत्रिक ए अगीयार प्रकृते विना १०९ प्रकृति बांधे।
हवे देवगतिने विषे बंध कहे छे१०३. एकेन्द्रियत्रिक कल्पद्वये ।
नारकीनी जेम देवताने बंध कहेवो पण ओघे अने मिथ्यात्वगुणस्थानमां एकेंद्रिय, स्थावर अने आतप ए प्रण सहित कहेवो. बे देवलोकमां ए ज बंध कहेवो ।
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१०४. अनुद्योतचतुष्कमासहस्रारात् ।
सहस्रार पछीना आनतविगेरे देवोमा उद्योत, तिर्यचद्विक अने तिर्यंचायुष्य विना बंध कहेवो ।
हवे इंद्रियमार्गणाने विष बंध कहे छे१०५. एकेन्द्रियपृथ्व्यम्बुवृक्षविकलाः ।
एकेंद्रिय, पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय अने विकले द्रिय (अपर्याप्त तिर्यंचनी जेम) मिथ्यात्वगुणस्थानमा १०९ बांधे। १०६. न सूक्ष्मत्रयोदशः सास्वादने ।
सास्वादनगुणस्थानमा सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकेंद्रिय, स्थावर, आतप, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व, हुंड अने छेवटुं ए तेर प्रकृति विना ९६ बांधे ।। १०७. वाय्वग्न्योर्जिनैकादशनरत्रिकोच्चाः।
वायुकाय अने अग्निकाय-जिननाम, देव द्विक, वैकियद्विक, आहारकद्विक, देवायुष्य, नरकत्रिक, मनुष्यत्रिक अने उच्चगोत्र ए पंदर प्रकृति विमा १०५ प्रकृति बांधे । अने गुणठाणु एक ज मिथ्यात्व होय । अहिं निषेध पाछलना सूत्रथी आवे छे.
हवे योगमागंणामां बंध कहे छे१०८. औदारिकमिश्रे नाहारकषट्कम् ।
औदारिकमिश्रकाययोगमा ओघे आहारकटिक, देवायुष्य अने नरकत्रिक ए छ प्रकृति विना ११४ होय ।
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१०९. मिथ्यात्वे जिनपञ्चकम् ।
मिथ्यात्वगुणस्थानमां जिननाम, देवद्विक अने वैक्रियद्विक ए पांच विना १०९ बांधे । निषेधनी अनुवृत्ति चाले छे । ११०. सास्वादने ऽतिर्यग्नरायुःसूक्ष्मत्रयोदशकम् ।
सास्वादन गुणस्थानमां तिर्य चायुष्य, मनुष्यायुष्य, सूक्ष्मत्रयोदश- सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकेंद्रिय, स्थावर, आतप, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व, हुंड अने छेबट्टु ए पंदर प्रकृति बिना ९४ बांधे ।
१११. अननन्तचतुर्विंशतिरयते जिनपश्चकम् |
अविरत गुणस्थानमां अनंतानुबंधिचतुष्क, मध्यमसंस्थान ४ मध्यम संघयण ४, अशुभ विहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दुर्भगत्रिक, थीणद्धित्रिक, उद्योत अने तिर्य चद्विक पचोवीश प्रकृति विना अने जिनपंचक- जिननाम, देवद्विक अने वैक्रियद्विक ए पांच प्रकृति सहित ७५ बांधे ।
११२. सातं सयोगिनि ।
सयोगि गुणस्थाने एक सातावेदनीय ज बांधे |
११३. न तिर्यङ्नरायुषी कार्मणे ।
कार्मणकाययोगमां तिर्यचायुष्य अने मनुष्यायुष्य सिवाय औदारिकमिrनी जेम बंध जाणवो ।
११४. वैक्रियमिश्र ।
(वैक्रियकाययोगमां देवतानी जेम बंध जाणवो) वैक्रिय
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मिश्रकाययोगमा तिर्यंचायुष्य अने मनुष्यायुष्य विना बंध जाणवो। ११५. औपशमिकस्य न देवमनुजयोरायुरयते ।
औपशमिकसम्यक्त्वमां अबते-अविरतगुणस्थानमां देव अने मनुष्यना आयुष्य सिवाय बंध जाणवो । ११६. देशादौ सुरस्य ।
देशविरत आदि गुणस्थानमां देवायुष्य विना बंध जाणत्रो। ११७. लेश्यात्रये नाहारकम् ।। ११८. तीर्थ मिथ्यात्वे ।
प्रथम प्रण लेश्यामां ओघे आहारकद्धिक विमा ११८ प्रकृति बंधमां होय । मिथ्यात्वगुणस्थानमा जिननाम विना ११७ बंधमां होय। ११९. नरकनवकं तैजस्याम् ।
तेजोलेश्यामां नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक भने विकलत्रिक ए नष विना १११ बंधमां होय । १२०. द्वादशकं च पद्मायाम् ।
पद्मलेश्यामां नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकेंद्रिय, स्थावर अने भातप ए बार विना १०८ प्रकृति ओघे बंधमां होय । १२१. उद्योतचतुष्कमपि शुक्लायाम् ।
शुक्ललेश्यामां नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकें
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द्रिय, स्थावर; आतप, उद्योत, तिर्यचद्विक अने तिर्यचायुष्यः ए सोल विना १०४ प्रकृति बधमां होय ।
(बंधाधिकार समाप्त ।)
हवे १४ गुणस्थानोमां उदय कहे छे१२२. उदये सम्यक्त्वमिश्रे अपि ।
उदय एटले अनुभवथी कर्मनु भोगवावु. बंधमा ओघे १२० प्रकृतिमो होय छे. ज्यारे उदयमा समकितमोहनीय अने मिश्रमोहनीय ए ये प्रकृति पण होय छे. एथी उदयमां ओघे १२२ होय छे. १२३. अजिनाहारकद्विकमिश्रसम्यक्त्वोऽ' सूक्ष्मत्रिकातप
मिथ्यात्वोऽनरकानुपूवी कोऽननन्तकषायस्थावरैकविकलाक्षानुपूर्वी त्रिकः समिश्रोऽ मिश्रः ससम्यक्त्वानुपूर्वी चतुष्कोऽ प्रत्याख्याननरतिर्यगानुपूर्वी वैक्रियद्विकसुरनरकत्रिकदौर्भाग्यानादेयद्विकोऽ'तिर्य ग्गत्यायुनी चोद्योतप्रत्याख्यानावरणसाहारकद्विकोऽस्त्यानर्द्धित्रिकाहारकद्विको सम्यक्त्वान्त्यसंहननत्रिकोऽ'हास्यषट्को-5 °वेदसंज्वलनत्रिकोऽ' लोभोऽनृषकाऽन्त्येभद्विकोपान्त्योऽनिद्राद्विकोऽन्त्योऽ'ज्ञानान्तरायपञ्चकदर्शनचतुष्कः सजिनोऽ' 'नौदारिकास्थिरगमद्विकप्रत्येकत्रिकसंस्थानषद्कागुरुवर्णचतुष्क
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निर्माण तेजसकार्मणवज्रदुःस्वरसुस्वरसाताऽसातान्यतरोऽन्त्यान्त-सुभगादेययशोऽन्यतरवेदनीयत्रसत्रिकपञ्चे
न्द्रियनरगत्यायुर्जिनोच्चः । १. मिथ्यात्वगुणस्थाने-जिननाम, आहारकठिक-आहारकशरीर अने आहारक अंगोपांग, मिश्रमोहनीय अने समकित. मोहनीय ए पांच सिवाय ११७ प्रतिओ उदयमां होय छ ।
२. सास्वादनगुणस्थानमां-सूक्ष्मत्रिक-सूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारण, आतप, मिथ्यात्व अने नरकानुपूर्वी सिवाय १११ प्रकृतिमो उदयमा होय ।
३. मिश्रगुणस्थानमां-अनंतानुबंधिकषाय-क्रोध, मान, माया अने लोभ, स्थावर, एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय-बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिद्रिय अने तिर्यंचानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी अने देवानुपूर्वी त्रण आनुपूर्वी रहित अने मिश्रमोहनीय सहित २०० प्रकृतिओ उदयमां होय ।
४. अविरतगुणस्थानमां-मिश्रमोहनीयरहिन समकितमोहनीय अने चार आनुपूर्वी सहित १०४ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
५. देशविरतगुणस्थानमां-अप्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया अने लोभ ४, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यचानुपूर्वी, वैक्रियद्विकवैक्रियशरीर अने वैक्रिय अंगोपांग, देवत्रिक-देवगति, देवानु: पूर्वी अने देवायुष्य, नरकत्रिक-नरकगति, नरकानुपूर्वी अने नरकायुष्य, दौर्भाग्य अने अनादेयद्विक-अनादेय अने अपयश ए सत्तर विना ८७ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
६. प्रमत्तगुणस्थाने-तिर्यंचगति, तिर्यंचायुष्य, नीचगोत्र,
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४०
उद्योत अने प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया अने लोभ ४, ए आठ रहित अने आहारकद्रिक-आहारकशरीर अने आहारक अंगोपाग सहित ८१ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
७. अप्रमत्तगुणस्थाने-स्त्यानद्धित्रिक निद्रानिद्रा, प्रचला. प्रचला अने स्त्यानद्धि अने आहारकद्विक-आहारकशरीर अने आहारक अंगोपांग ए पांच रहित ७६ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
८. अपूर्वकरणगुणस्थानमां-सम्यक्त्वमो., मो., अंत्यसंहननत्रिक-छेल्लां त्रण संघयण-अर्धनाराच, कीलिका अने छेवढे ए चार रहित ७२ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
९. अनिवृत्तिबादरगुणस्थानमां-हास्यादि छ रहित ६६ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
१०. सूक्ष्मसंपरायगुणस्थाने-त्रण वेद-स्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसकवेद, संज्वलन क्रोध, मान अने माया ए छ सिवाय ६० प्रकृतिओ उदयमां होय ।
११. उपशांतमोहगुणस्थाने-लोभ रहित ५९ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
१२. क्षीणमोहगुणस्थानमां-छल्ला समयनी पहेला समयमां ऋषभनाराचद्विक-ऋषभनाराच अने नारावसंघयण रहित ५७ प्रकृतिओ अने छल्ला समयमा निद्राद्विक-निद्रा, प्रचला रहित ५५ प्रकृतिओ उदयमां होय ।।
१३ सयोगिकेवलिगुणस्थाने-शानावरणीय ५, अंतराय ५, अने दर्शनावरणीय ४, ए चौद रहित अने जिननाम सहित ४२ प्रकृति मो उदयमां होय ।
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४.
१४. अंत्य-अयोगिकेवलिगुणस्थानमां-औदारिकद्विक, औदारिकशरीर अने औदारिक अंगोपांग, अस्थिरद्विक-अस्थिर अने अशुभ, गम-विहायोगति-द्विक-शुभविहायोगति अने अशुभविहायोगति, प्रत्येकत्रिक-प्रत्येक, स्थिर अने शुभ, संस्थान ६, अगुरुलघुचतुष्क-अगुरुलघु, उपधात, पराघात अने उच्छवास, वर्णचतुष्क-वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श, निर्माणनाम, तेजप्तशरीर, कार्मणशरीर, वज्रऋषभनाराचसंघयण, दुःस्वरनाम, सुस्वरनाम, सातावेदनीय अने असातावेदनीय, ए बेमांनी एक, एम त्रीश रहित १२ प्रकृतिओ उदयमां होय ।
अन्त्यान्त-अयोगिगुणस्थानना छेल्ला समये सुभगनाम, आदेयनाम, यशनाम, बेमांथी एक वेदनीय, त्रसत्रिक-त्रस, बादर अने पर्याप्त, पंचेंद्रियजाति, मनुष्यगति, मनुष्यायुष्य, जिननाम अने उच्चगोत्र ए बार प्रकृतिनो अंत थाय छ।
उदयाधिकार समाप्त
उदीरणा १२४. नोदीरणाऽयोगिनि । १२५. आऽप्रमत्ताद् वेदनीयद्विकाऽऽयुषाम् ।
अयोगिकेवलिगुणस्थानमा उदीरणा न होय । उदीरणा एटले उदयमां नहिं आवेला कर्मपुद्गलने उदयमां आणवा । अप्रमत्त आदि सात गुणस्थानोमां वेदनीयद्विक-सातावेदनीय अने असातावेदनीय अने मनुष्यायुष्य
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प त्रण प्रकृतिओ करीने न्यून जाणवी. कारण के-ए सात गुणस्थानमां ए त्रण प्रकृतिओनी उदीरणा न होय ।
उदीरणाधिकार समाप्त
सत्ता
१२६. सत्ता आ उपशान्तात् सर्वासाम् ।
सत्ता एटले कर्मोनी विद्यमानता । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानथी मांडी उपशांतमोह गुणस्थान सुधी सर्व प्रकृतिओनी ( १४८) सत्ता होय छे ।
१२७. विजिनौ द्वितीयतृतीयौ ।
प्रम गुणस्थाने १४८ नी सत्ता. बीजे अने त्रीजे गुणस्थाने जिननाम विना १४७ नी सत्ता होय छे ।
१२८. अदर्शनत्रिकानन्ताऽनरायुष्कोऽनिवृत्तिः क्षपको 5
यतात् ।
मांडी
क्षायिकसमकितीने अयत - अविरत गुणस्थानधी अनिवृत्ति- बादर गुणस्थानना प्रथम भाग सुधी दर्शनत्रिकसम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अने मिथ्यात्वमोहनीय, अनंतानुबंधिकषाय ४, अने अनर - मनुष्य सिवाय त्रण आयुष्य १० रहित १३८ नी सत्ता होय ।
१२९. अस्थावरतिर्यग्नरकातपद्विकस्त्यानगृद्धित्रिकैक विकला
क्षसाधारणद्वितीयो ऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणतृतीयः
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४३
क्रमान्नपुंसकत्रीहास्यषट्कपुंस्तुर्यक्रोधमदमायाक्षयोऽलोभान्त्यद्वितीयोऽनिद्राद्विकान्त्योऽज्ञानान्तरायदर्शना - ऽदेवगमगन्धद्विकस्पर्शाष्टकवर्णरसतनुबन्धनसवातनपश्चकनिर्माणसंहननसंस्थानास्थिरषद्कागुरुलघुचतुकापर्याप्तप्रत्येकोपाङ्गत्रिकसुस्वरनीचान्यतरवेदनीयान्त्यः । अनिवृत्तिना बीजा भागमां-स्थावरद्विक-स्थावर अने सूक्ष्म; तिर्यचद्विक-तिर्यंचगति अने तिर्यवानुपूर्वी, नरकद्विकनरकगति अने नरकानुपू:, आतपद्विक-आतप अने उद्योत, स्त्यानद्धित्रिक, एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय अने साधारण ए सोल प्रकृति रहित १२२ नी सत्ता होय । त्रीजा भागमां-अप्रत्याख्यानीयकषाय ४ अने प्रत्याख्यानावरणकषाय ४ ए आठ रहित ११४ नी सत्ता । चोथा भागमां नपुंसकवेद रहित ११३ नी सत्ता। पांचमा भागमां-स्त्रीवेदरहित ११२नी सत्ता। छठा भागमा हास्यादि छ रहित १०६ नी सत्ता । सातमा भागमां-पुरुषवेद रहित १०५ नी सत्ता । आठमा भागमांसंज्वलन क्रोध रहित १०४ नी सत्ता । नवमा भागमां-संवलन मद-मानरहित १०३ नी सत्ता । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानमां मायारहित १०२ नी सत्ता । क्षीणमोह गुणस्थानना अंत्यद्वितीय-छल्ला समयनी पहेला समयमा लोभ रहित १०१ नी सत्ता । अंत्य-छल्ला समये निद्राद्विक-निद्रा अने प्रचला रहित ९९ नी सत्ता। सयोगिकेवलिगुणस्थाने-शानावरणीय ५, अंतराय ५ अने दर्शनावरणीय ४ ए १४ प्रकृति रहित ८५ नी
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सत्ता । अंत्य-अयोगि केवलिगुणस्थानना छेल्ला समयमां देवद्विक-देवगति अने देवानुपूर्वी,गम विहायोगति-द्विक-शुभविहा. योगति अने अशुभविहायोगति, गंधद्विक-सुरभिगंध अने दुरभिगंध,स्पर्शाष्टक-गुरु,लघु,मृदु,कर्कश,शीत,उष्ण,स्निग्ध अने रूक्ष, वर्णनाम ५-कृष्ण, लीलो, लाल, पीलो अने शुक्ल, रसनाम ५तीखो, कडवो, तुरो, खारो अने मीठो, शरीर ५, बंधन ५, संघातन ५, निर्माणनाम, संघयण ६, संस्थान ६, अस्थिरषद्कअस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय अने अपयश, अगुरुलघुचतुष्क-अगुरुलघु, उपघान, पराघात अने उच्छ्वास, अपर्याप्तनाम, प्रत्येकत्रिक-प्रत्येक, स्थिर अने शुभ, उपांगत्रिक औदारिक उपांग; वैक्रिय उपांग अने आहारक उपांग, सुस्वरनाम, नीचगोत्र अने अन्यतर-सातावेदनीय अने असातावेदनीय ए बेमांथी एक, एवं ७२ प्रकृतिरहित १३ नी सत्ता होय । १३०. अन्त्यान्त्ये छेदः ।
अयोगिकेवलिगुणस्थानना छेल्ला समये १३ प्रकृतिनो छेद थाय छ ।
सत्ताधिकार समाप्त
(भावतभेदाः) भावनुं वर्णन१३१. उपशमक्षयमिश्रोदयपरिणामसंयोगजा द्विनवाष्टा
दशैकविंशतित्रिषड्विंशतिभेदाः ।
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૪૫
औपशमिक, क्षायिक, मिश्र- क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिक अने संयोगज - सांनिपातिक ए छ भाव छे. एना (अनुक्रमे ) बे, नव, अढार, एकवीश, त्रम अने छन्वीश भेदो छ । १३२. सम्यक्त्वचारित्रे |
औपशमिकभाani उपशमसम्यक्त्व अने उपशमचारित्र ए वे भेद होय छे ।
१३३. केवलज्ञानदर्शनदान लाभभोगोपभोगवीर्याणि च ।
क्षायिकभावमां- केवलज्ञान, केवलदर्शन, दानलब्धि, लाभ लब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, वीर्यलब्धि अने चशब्दथी क्षायिकसम्यक्त्व अने क्षायिकचारित्र एम नव भेद जाणवा ।
१३४. सशेषोपयोग देशानि ।
क्षायोपशमिकभावमां- शेषोपयोग-बाकीना दश उपयोगमतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, चक्षुदर्शन अवधिदर्शन, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान अने विभंगज्ञान, देशविरति सहित दानादि पांच लब्धि- दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि अने वीर्यलब्धि, सम्यक्त्व अने चारित्र ए अढार भेद जाणवा ।
१३५.
गतिवेदकषायलेश्यामिथ्यात्वाऽज्ञानासंयतासिद्धत्वानि ।
औदयिक भावमां गति ४- नरकगति, तिर्यचगति, मनुष्यगति, देवगति, वेद ३ - स्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसकवेद, कषाय ४ - क्रोध, मान, माया अने लोभ, लेश्या ६-कृष्ण, नील,
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कापोत, तेजो, पद्म अने शुक्ललेश्या, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयतत्व अने असिद्धत्व एम २१ भेद जाणवा । १३६. जीवभव्याभव्यत्वानि । __ पारिणामिक भावमां-जीवत्व, भव्यत्व अने अभव्यत्व एम त्रण भेद जाणषा । १३७. चतुर्गतिषु परिणामोदयजाः सोपशमक्षयमिश्राः
__ केवलिनि च सक्षयजाः।
चारे गतिमा औपशमिकभाव, क्षायिकभाव अने क्षायोपशामिकभाव सहित पारिणामिक अने औदयिक भाव होय अने केवलिने विषे क्षायिकभाव सहित पारिणामिक अने औदायिकभाव होय । १३८. क्षयपरिणामजी सिद्धे ।
सिद्धभगवंतने विषे क्षायिक अने पारिणामिक बे ज भाव होय । १३९. उपशमश्रणौ पश्चजः ।
उपशमश्रेणिमां पांच संजोगीभाव होय । १४०. धर्माऽधर्माऽऽकाशकालाः पारिणामिके ।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय अने काल ए चार पारिणामिकभावमां होय । १४१. पुद्गला औदयिके च ।
स्कंधपुद्गलो औदयिकभाव अने पारिणामिकभावमां होय।
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(सङ्ख्यातादिमेदः) हवे संख्यातादिनुं स्वरूप कहे छ१४२. द्वितः सङ्ख्या।
संख्यातु एक होय छे । असंख्यातना त्रण भेद-परीत्त असंख्यात, युक्त असंख्यात अने असंख्यात असंख्यात । एवी रीते अनंतना त्रण भेद-परीत्त अनंत, युक्त अनंत अने अनंतानंत । एम सात भेद थया । दरेक जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट एम त्रण भेदे होय, तेथी सातने त्रण गुणतां एकवीश मेद होय । तेमां जघन्य संख्यातु बे ज होय, कारणएकनी संख्या होय नहीं, बेथी ज संख्या होय । त्रण चार पांच विगेरे यावत् उत्कृष्ट संख्यातु आवे त्यां सुधी मध्यम संख्यातु जाणवु।
हवे उत्कृष्ट संख्यातु कहे छे -- १४३. योजनसहस्रोद्वेधाः सशिखवेदिकान्ताः शतसहस्रयोज
नायामा वृत्ताः पल्याः शलाकाप्रतिशलाकामहाशलाका अनवस्थित आदौ तत्सर्षपावगाढमानः
परतः प्रतिक्षेपं शलाकादौ सर्वपक्षेपः । एक हजार योजन उडा लाखयोजन पहोला, गोल वेदिकाना अंत सधी शिखा सहित सरसवे करी भरेला चार पाला कल्पवा। प्रथम अनवस्थित नामे, बीजो शलाका नामे, त्रीजो प्रतिशलाका नामे अने चोथो महाशलाका नामे। त्यां पहेलो पालो सरसवे करी शिखा सहित भरीए । पछी ते भरेल अनवस्थित पालो उपाडीने तेमांथी एकेक सरसव द्वीप अने समुद्रने विषे
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नांखीए. नांखतां पालो ज्यारे खाली थाय त्यारे ज्यां पालो खाली थयो ते द्वीप अथवा समुद्र जेबडो पालो कल्पीए ते वली सरसवे भरीए । पछी ते पालाने उपाडीने द्वीप-समुद्रमां एकेक सरसव नांखतां पूर्वनी पेठे खाली थाय त्यारे एक सरसवनो दाणो शलाका पालामा नास्त्रीए । वली ते ज्यां खाली थयो ते द्वीप अथवा समुद्र जेवडो पालो कल्पीए । एम पहेला (अनवस्थित) पाला जेम जेम खाली थता जाय तेम तेम शलाका पालामा एकेक सरसघ नांखता जाए अने ने ते द्वीप-समुद्र जेवडा पाला कल्पता जइए एम वारंवार करीए. एम करतां ज्यारे शलाका पालो भराय त्यारे पूर्वनी जेम शलाका पालो उपाडीने त्यांथी आगलना द्वीप-समुद्रमां एकेक सरसव मूकीए । एम करतां शलाका पालो खाली थाय त्यारे त्रीजा प्रतिशलाका पालामां एक सरसव मूकीए । वली त्यां अनवस्थितपालो कल्पीए । एवी ज रीते पहेला अनव स्थित पालाए करी बीजो शलाका पालो भरोए, ते शलाका पाले करी त्रीजो प्रतिशलाका पालो भरीए अने प्रतिशलाका पाले करीने चोथो महाशलाका पालो भरीए । ते महाशलाका भर्या पछी प्रतिशलाका भरीए ते पछी शलाका भरीए अने ते त्रणे ज्यां भराइ रह्या ते द्वीप-समुद्र जेवडो अनवस्थित पालो कल्पीए तेने सरसवे भरीए एटले चार पाला पूर्ण भराय । १४४. पूर्णचतुष्के रूपोना क्षिप्तयुताः परा सङ्ख्या
सरूपं जघन्यं परीत्ताऽसङ्ख्यम् । ज्यारे ४ पाला भराय त्यारे एक जग्याए खाली करवा
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अने जे जे द्वीप - समुद्रमां नांख्या हता ते पण आमां उमेरवा, हवे ए राशि एकरूप ऊण करवाधी उत्कृष्ट संख्यातु आवे, अने ए एकरूप उमेरतां जघन्य परीत्त असंख्यातु आवे । १४५. अभ्यासे युक्तम् ।
जघन्य परीत्त असंख्यातने अभ्यास करतां जघन्य युक्त असंख्यातु आवे ।
१४६. पुनः पुनः स्वयुतासङ्ख्यपरीत्तयुक्तस्वयुतानन्तम् ।
जघन्य युक्त असंख्यातनो अभ्यास करतां जघन्य असंख्यातासंख्यात आवे, वली जघन्य असंख्यात असंख्यातनो अभ्यास करतां जघन्य परीत अनंत आवे, वली जघन्य परीत्त अनंतनो अभ्यास करतां जघन्य युक्त अनंत आवे, बली जघन्य युक्त अनंतनो अभ्यास करतां जघन्य अनंतानंत आवे । १४७. सर्वत्र रूपोनं पश्चिमं परम् ।
बधामां एकरूप ओछें करीए त्यारे पाछलनुं उत्कृष्ट थाय १४८. मध्ये मध्यमम् ।
वचमां मध्यम जाणवुं ।
१४९. नानन्तानन्तमुत्कृष्टम् । उत्कृष्ट अनंतानंत नथी ।
१५०. केचित्तु युक्तेऽसङ्ख्ये वर्गिते सप्तमं, त्रिवर्गिते दशक्षेपे लोकाकाशधर्माधर्मे कजीव प्रदेश स्थितिबन्धा
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૫૦
ऽध्यवसायानुभागयोगभागोत्सर्पिणी- तत्समयप्रत्येकनिगोदक्षेपे त्रिवर्गे आद्यानन्तम् ।
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केटलाक आचार्य कहे छे चोथु युक्त असंख्यातने एक वार वर्ग करी त्यारे सातमु जघन्य असंख्यात असंख्यात थाय । वली ते सातमाने त्रण वार वर्ग करोए पछी तेमां लोकाना प्रदेशो, घर्मारितकायना प्रदेशो, अधर्मास्तिकायना प्रदेशो, एकजीवना प्रदेशो स्थितिबंधना अध्यवसायस्थानो, अनुभाग-रस बंधना अध्यवसाय स्थानो, योगना अविभाज्य भागो, उत्सर्पिणी- अब सर्पिणीना समयो, प्रत्येक शरीरवाला जीवो अने निगोदो ए दशनो क्षेत्र करीए पछी ते राशिने त्रण वखत वर्ग करी त्यारे आद्यानं त- जघन्य परीत्त अनंतु थाय । १५१. अभ्यासे तु त्रिवर्गिते सप्तमं च । त्रिवगिते
सिद्ध निगोदतरुकालपरमाण्वलोकाकाशे
क्षिप्ते त्रिवर्गे केवलद्विके परम् ।
जघन्य परीत्त अनंतनो अभ्यास करीए त्यारे चोथु जघन्य युक्त अनंतु थाय, वली ते जघन्य युक्त अनंतनो त्रण चार वर्ग करी त्यारे सातमु जघन्य अनंतानंत थाय. वली जघन्य अनंतानं तनो त्रण वार वर्ग करीए पछी तेमां सिद्धना जीवो, निगोदना जीवो, तरु-वनस्पतिना जीवो, काल-त्रण कालना समयो, पुद्गलना परमाणुओ भने अलोकाकाशना प्रदेशी नांखीए पछी प राशिनो त्रण वखत वर्ग करीने केवलज्ञान अने केवलदर्शनना पर्यायो उमेरीए त्यारे उत्कृष्ट अनंतानंत थाय ।
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हवे ध्रुवबंधि प्रकृति कहे छ -
(ध्रुवबन्धः) १५२. आवरणचतुर्दशकमिथ्यात्वकषायभयकुत्सावर्णचतु
कागुरुलघुतैजसकार्मणनिर्माणोपघातान्तरायाणां ध्रुवं
बन्धः । पोतानो हेतु होय त्यारे जे प्रकृति अवश्य बंधाय ते ध्रुव बंधी अने जे अबश्य न बधाय ते अध्रुवबंधी. तेमां ध्रुवबंधी ४७ प्रकृतिओ छे. ते आ प्रमाणे-आवरणवतुदर्शक-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ९, मिथ्यात्वमोहनीय, कषाय १६, भयमोहनीय, दुग'छामोहनीय, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, तैजस, कार्मण, निर्माण, उपघात अने अंतराय ५ ए ४७ प्रकृतिओनो ध्रुवबंध जाणवो बाकीनी प्रकृतिओ अध्रुवबंधी जाणवी.
हवे ध्रुवोदयी प्रकृति कहे छे१५३. ज्ञानचतुष्ट्यावरणमिथ्यात्वनिर्माणस्थिरास्थिर
शुभाशुभतैजसकार्मणागुरुलघुवर्णचतुष्कान्तरायाणा
मुदयः । पोताना उदयव्युच्छेदकाल सुधी जे प्रकृतिनो सतत उदय होय ते ध्रुवोदयी, अने जे प्रकृतिनो उदयव्युच्छेद पाम्यो होय छतां द्रव्य-क्षेत्र आदि भावने पामी फरी उदयमां आवे ते अध्रुवोदयी जाणवी. तेमां ध्रुवोदयी सत्तावीस ते मा प्रमाणेज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय. ४, मिथ्यात्व, निर्माण, स्थिर,
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अस्थिर, शुभ, अशुभ, तेजस, कार्मण, अगुरुलघु, वर्णचतुष्क ४, अने अंतराय ५, ए सत्तावीसनो ध्रुव उदय होय छे. वाकीनी प्रकृतिओ अध्रुवोदयी जाणवी.
हवे अध्रुवसत्ता प्रकृति कहे छे१५४. सम्यक्त्वमिश्रनरद्विकजिनायुबै क्रियैकादशाहारक
सप्तकोच्चमध्रवम् । अनादि मिथ्यात्वी जीवने जे निरंतर सत्ताए होय ज ते ध्रुवसत्ता, अने जे कोई वार सत्ताए होय कोई वार सत्ताए न होय ते अध्रुवसत्ता. तेमां अध्रुवसत्ता अठ्ठावीस. ते आ प्रमाणे-सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, मनुष्यद्विक, जिननाम; आयुष्य ४, वैक्रिय एकादश, आहारकसप्तक अने उच्चगोत्र, ए अट्ठावीस अध्रुवसत्ता, बाकीनी प्रकृतिओ ध्रुवसत्ता जाणवी.
गुणस्थानमा ध्रुवसत्ता कहे छे१५५. ध्रुवं त्रिगुणे मिथ्यात्वं, सास्वादने चानन्ताः
सम्यक्त्वं मिश्र मिश्रे च ।
आहारकतीर्थयोन मिथ्यात्वम् । पहेला त्रण गुणठाणाने विषे मिथ्यात्व नियमा होय अने सास्वादनमां अन तानुबंधिकषाय ४ सम्यक्त्वमोहनीय नियमा होय अने मिश्रमोहनीय निश्चये होय, अने मिश्रगुणस्थानके मिश्रमोहनीय नियमा होय.
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५3 .
'आहारकनाम अने तीर्थ करनामकर्मनी सत्ताभां मिथ्यात्व न होय.'
हवे घाती प्रकृतिने कहे छे१५६. केवलद्विकावरणनिद्रापश्चकाऽऽद्यकषायद्वादशकमिथ्या
त्वानि सर्वथा शेषावरणसज्वलननोकषायान्तराया
देशतश्च घातिन्यः । पोताना ज्ञानादिगुणने सर्वथा हणे ते सर्वघाती अने कांहक हणे ते देशधाती. तेमां केवलद्विकावरण-केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रापंचक, पहेला बार कषाय अने मिथ्यात्व ए वीस प्रकृति सर्वघाती अने शेषावरण-मत्यादि चार शानावरणीय अने त्रण दर्शनावरणीय, संज्वलन कषाय ४, नोकषाय ९ भने अंतराय ५ ए पच्चीस प्रकृति देशघाती होय छे.
हवे पुण्यप्रकृति कहे छे१५७. सुरनरत्रिकोच्चसातत्रसदशकतनूपाङ्गवज्रचतुरस्रानु
पघातागुर्वादिसप्तकतिर्यगायुर्वर्णचतुष्कपश्चाक्षशुभ
गमाः पुण्यं (शेषांः) पापे विवर्णचतुष्कम् । देवत्रिक, मनुष्यत्रिक, उच्चगोत्र, सातावेदनीय, प्रसनो दशको, शरीर ५, उपांग ३, वज्रऋषभनाराचसंघयण, समचतुः
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रञसंस्थान, उपघात सिवाय अगुरुलघु आदि सात-अगुरुलघु, पराघात, उच्छवास, आतपनाम, उद्योतनाम, तीर्थ करनाम भने निर्माणनाम, तिर्यंचायुष्य, वर्ण आदि चार, पंचेंद्रियजाति भने शुभविहायोगति ए ४२ पुण्यप्रकृतिओ छे.
बाकीनी ७८ अने अशुभवर्णादि ४ एम ८२ पापप्रकतिमो छे.
हवे अपरावर्तमान प्रकृतिने कहे छे१५८. उच्छ्वासपराघातजिननामध्रुवबन्धनवकचतुर्दृष्टिज्ञाना
वरणविघ्नभयकुत्सामिथ्यात्वान्यपरावर्ताः। जे बोजी प्रकृतिनो बंध अथवा उदय निवारीने पोतानो बंध तथा उदय देखाडे ते परावर्तमान अने जे परनो बंध तथा उदय वार्या विना ज पोतानो बंध-उदय देखाडे ते अपरावर्तमान. तेमां अपरावर्तमान २९ प्रकृतिओ छे. ते आ प्रमाणे-उच्छ्वासनाम,पराघातनाम,जिन नाम, नामधुवबंधनवकवर्णचतुष्क, तैजसनाम, कार्मणनाम, अगुरुलघुनाम, निर्माण नाम अने उपघातनाम, दर्शनावरणीय ४, ज्ञानावरणीय ५, अंतराय ५, भयमोहनीय, दुगंछामोहनीय अने मिथ्यात्व ए २९ प्रकृतिओ अपरावर्तमान होय छे. बाकीनी प्रकृतिओ परावर्तमान जाणवी.
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૫૫
हवे क्षेत्रविपाको प्रकृतिने कहे छे१५९. क्षेत्रे आनुपूर्व्यः ।
क्षेत्र-आकाश तेमा जे प्रकृतिनो विपाक-उदय होय ते क्षेत्रविपाकी ते चार छे. ते आ प्रमाणे-नरकानुपूर्वी, तिथंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी अने देवानुपूर्वी.
हवे जीवविपाकी प्रकृतिने कहे छे१६०. घातिगोत्रजिनसेतरत्रिकसुभगेतरचतुष्कोच्छ्वास
गतिजातिगमा जीवे । जीवमां ज जे प्रकृतिको विपाक-उदय होय ते जीवविपाकी ते ७८ छे, ते आ प्रमाणे-घाती ४७, गोत्र द्विक, जिननाम, त्रसत्रिक, स्थावरत्रिक, सुभगचतुष्क, दुर्भगचतुष्क, श्वासोच्छ्वास, गति ४, जाति ५ अने गम-विहायोगति २ ए ७८ प्रकृतिओ जीवविपाकी छे.
हवे भवविपाकी प्रकृतिने कहे छे१६१. भवे आयूंषि । .
भवमा जे प्रकृतिनो विपाक-उदय होय ते भवविपाकी ते चार छे. ते आ प्रमाणे-नरकायुष्य, तिथंचायुष्य, मनुष्यायुष्य अने देवायुष्य.
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हवे पुद्गल विपाकी प्रकृतिने जणावे छे१६२. नामध्रुबोदयद्वादशकतनूपाङ्गाकृतिसंहननोपघातसाधा
रणेतरोद्योतातपपराघाताः पुद्गले। पुद्गलमा जे प्रकृतिनो विपाक-उदय होय ते पुद्गलविपाकी ते ३६ छे. ते आ प्रमाणे नामकर्मनी ध्रुवोदयी बार प्रकृति, शरीर ३, उपांग ३, संस्थान ६, संघयण ६, उपघातनाम, साधारणनाम. प्रत्येकनाम, उद्योत, आतप अने पराघात ए ३६ प्रकृतिओ पुद्गलत्रिपाकी जाणवी.
हवे मूलप्रकृतिना भूयस्कारादिबंध जणावे छे१६३. अष्टसप्तपडेकवन्धे त्रित्रिचत्वारो भूयोऽल्पाव
स्थिताः । एकादि अधिक प्रकृतिनो बंध छते भूयस्कारनामनो बंध थाय, जेम-एक प्रकृतिने बांधतो होय अने पछी छ बांधे. छ बांधीने सात बांधे । एकादि प्रकृति वडे हीन बंध छते अल्पतर बंध थाय, जेम आठ प्रकृति बांध्या पछी सात बांधे अथवा सात बांध्या पछी छ बांधे । पूर्व बांधतो होय तेटली ज प्रकृति ज्यां लगे बांधे ते अवस्थित बंध कहीए । सर्वथा अबंधक थइने फरी प्रकृति बांधवा मांडे त्यारे पहेले समये अबक्तव्य बंध कहीए । मूलप्रकृतिना आठ, सात, छ अने एक प्रकृतिना बधस्थानमा त्रण भूयस्कार, त्रण अल्पतर अने चार अवस्थितबंध होय.
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૧૭
हवे उत्तरप्रकृतिना भूयस्कारादिबंध जणावे छे१६४. दशे नवषट्चतुर्णा द्विद्विविद्वाः सावक्तव्याः ।
दर्श - दर्शनावरणीयकर्मनी उत्तरप्रकृतिना नब, छ अने चार प्रकृतिना बंधस्थानमां बे भूयस्कार, बे अल्पतर, त्रण अवस्थित अने बे अवक्तव्य बंध होय छे.
१६५. मोहे द्ववेकविंशतिसप्तत्र्यधिकदश नवपञ्चचतुखिइयेकस्मिन् नवाष्टदशद्विकाः ।
मोहनीयकर्मनी २६ प्रकृतिने विषे बावीस, एकवीरा, सत्तर, तेर, नव, पांच, चार, त्रण, बे अने एक एम १० बंधस्थानक छे, तेमां नव भूयस्कार, आठ अल्पतर, दश अवस्थित अने बे अवक्तव्यबंध होय छे. १६६. नाम्नि त्रिपञ्चषडष्टनवाधिकविंशतित्रिंशत्सैकस्मिन् षट्सप्ताष्टत्रयः, शेषेष्वेककम् ।
नामकर्ममा २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३९ अने १ बंधस्थानक होय. तेमां भूयस्कार ६, अल्यतर ७, अवस्थित ८ अने अवक्तव्य ३ होय बाकीना कर्मने विषे एकेक बंधस्थान होय.
स्थितिबंध
हवे मूलकर्मनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कहे छे
१६७. स्थितिः ।
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आयुषस्त्रयस्त्रिंशत् सागराः । त्रिंशत् कोटाकोट्यः ज्ञानदर्शनघ्नवेद्यान्तरायाणाम् । सप्ततिमो हस्य ।
नामगोत्रयोविंशतिः । १. आयुष्यनी उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपमनी छे.
२. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय भने अंतरायकर्मनी उत्कृष्टस्थिति ३० कोडाकोडी सागरोपमनी छे.
३. मोहनीयकर्मनी उत्कृष्टस्थिति ७० कोडाकोडी सागरो. पमनी छे.
४. नाम अने गोत्रकर्मनी उत्कृष्टस्थिति २० कोडाकोडी सागरोपमनी छे.
हवे मूलकर्मनो जघन्यस्थितिषध कहे छ१६८. अपराष्टौ मुहूर्ताः।
द्वादश वेद्ये।
शेषे भिन्नम् । नाम अने गोत्रकर्मनी जघन्यस्थिति ८ मुहर्तनी छे. वेदनीयकर्मनी १२ मुहूर्तनी छे. बाकीना कर्मनी जघन्यस्थिति अंतमुहर्तनी छे.
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हवे उत्तरप्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध कहे छे१६९. कषाये विघ्नावरणासाते सूक्ष्मविकलत्रिके आद्य
संस्थानसंहननमृदुलघुस्निग्धोष्णसुरभिसितमधुरसुभगम्युच्चसुरद्विकस्थिरषदकपुरुषरतिहास्ये चत्वा
रिंशत् त्रिंशदष्टादश दश परा । १. कषाय १६ मां तथा २. अंतराय ५, आवरण-ज्ञानावरणीय ५ अने दर्शनावरणीय ९.असातावेदनीयमा तथा ३. सूक्ष्मत्रिकसूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारण, विकलत्रिक-बेइंद्रिय, तेइंद्रिय अने चउरिंद्रियमां तथा ४. आधसंस्थान,आधसंघयण,मृदु, लघु, स्निग्ध, उष्णस्पर्श, सुरभिगध, सित-श्वतधर्ण, मधुररस; शुभ विहायोगति, उच्चगोत्र, देवद्विक, स्थिरषटक-स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय अने यश नाम, पुरुषवेद, रतिमोहनीय अने हास्यमोहनीयने विषे अनुक्रमे ४०, ३०, १८ अने १० कोडाकोडी सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति होय. १७०. शेषाकारसंहनने वर्णरसयोश्च द्विद्वयवृद्धिः ।
बाकीना संस्थान अने संघयणने विष तथा वर्ण अने रसमां बब्बेनी अने अढी अढी कोडाकोडी सागरोपभनी वृद्धि जाणवी ते आ प्रमाणे
१. समचतुरस्रसंस्थान अने वज्रक्रमनाराच संघयणनी १० कोडाकोडी सागरोपम होय.
बब्बे कोडाकोडी सागरोपम वधारता
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२. न्यग्रोधसंस्थान अने ऋषभनाराचसंघयणनी १२ को सा० ३. सादिसंस्थान भने नाराचसंघयणनी १४ को० साo ४. कुब्जसंस्थान अने अर्धनाराचसंघयणनी १६ को० सा० ५. वामनसंस्थान अने कीलिकासंघयणनी १८ को० सा.. ६. हुंडकसंस्थान अने छेवटासंघयणनी २० को० सा०
१. श्वेतवर्ण अने मधुररसनी १० कोडाकोडी सागरोपम. अढी कोडाकोडी सागरोपम वधारतां
२. पीतवर्ण अने आम्लरसनी १२३ कोडाकोडी सारोपम, ३. रक्तवर्ण अने कषायरसनी १५ कोडाकोडी सागरोपम, ४. नीलवर्ण अने कटुकरसनी १७३ कोडाकोडी सागरोपम,
५. कृष्णवर्ण अने तिक्तरसनी २० कोड कोडी सागरो. पमनी होय. १७१. मिथ्यात्वे सप्ततिः ।
मिथ्यात्वमा ७० कोडाफोड सागरोपम होय. १७२. नरद्विकस्त्रीसाते पञ्चदश ।
मनुष्यद्विक-मनुष्यगति अने मनुष्यानुपूर्वी, स्त्रीवेद भने सातावेदनीयमा १५ कोडाकोड सागरोपम होय. १७३. विंशतिः शेषे ।
बाकी-भयमोहनीय, जुगुप्सा, अरति, शोक, वैक्रियविक, तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, नरकद्विक, मीचगोत्र, तैजसपंचक, अस्थिरषटक, सचतुष्क, स्थावर, एकेंद्रियजाति, पंचेंद्रिय
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जाति, नपुंसकवेद, अशुभविहायोगति, श्वासचतुष्क, गुरु, कर्कश, रूक्ष, शीतस्पर्श अने दुर्गधमा २० कोडाकोडी सागरो. पम होय. १७४. जिनाहारकयोरेकान्तः। __ जिननाम अने आहारकद्विकनी उत्कृष्टस्थिति अंतःकोडाकोडी सागरोपम छे. (जघन्यस्थिति संख्यातगुणहीन अंतःकोडाकोडी सागरोपम जाणवी) १७५. अबाधा भिन्नम् ।
जिननाम अने आहारकद्विकनो अबाधाकाल अंतर्मुहूर्तनो होय छे. १७६. तावद्वर्षशतान्यपरत्र । __बीजी प्रकृतिओमा जेटला कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति होय तेटला सो वर्षनो अबाधाकाल होय. १७७. नरतिरश्चोरायुः पल्यत्रयम् ।
मनुष्य अने तिर्यचना आयुष्यनी स्थिति उत्कृष्ट प्रण पल्योपम जाणवी. १७८. सुरनारकयोः परम् ।
देव अने नारकना आयुष्यनी उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपमनी जाणवी.
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हवे आगामिभवायु जेटलु बांधे ते कहे छ१७९. एकविकलेन्द्रियेऽमनसि च पूर्वकोटीपल्याऽसख्यांशौ।
एकेंद्रिय अने विकलेंद्रिय पूर्वकोटीवर्षनु आयुष्य अने असंक्षीपंचेंद्रिय पल्योपमनो असंख्यातमो भाग बांधे. १८०. निरुपक्रमेतरयोः षण्मासभवत्र्यंशोऽबाधा ।
निरुपक्रम आयुष्यनो अबाधाकाल छ महिना अने इतरनोसोपक्रम-निरुपक्रम भायुष्यनो भवनो त्रीजो भाग अबाधाकाल जाणवो. देवता-नारकी अने युगलिक मनुष्य अने तियेच निरुपक्रम आयुवाला छे अने संख्यातवर्षना आयुवाला सोपक्रमी अने निरुपक्रमी बंने प्रकारना होय छे.
हवे उत्तरप्रकृतिनो जघन्यस्थितिबंध कहे छे१८१. अन्त्यलोभज्ञानदर्शनघ्नविघ्ने यशउच्चे साते
अन्त्यक्रोधमानमायासु पुंसि परा भिन्नाष्टद्वादश
मुहूर्त्तद्वयकमासपक्षाष्टवर्षाणि । ___ संज्वलनलोभ, ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४, अंतराय ५ ए १५ प्रकृतिमां अंतमुहूर्त तथा यशनाम अने उच्चगोत्रमा आठमुहूर्त तथा सातावेदनीयमा १२ मुहूत्त तथा संज्वलम क्रोधमानमायामां अनुक्रमे बे मास, एकमास, अने एकपक्ष तथा पुरुषवेदमा आठ वर्ष जघन्य स्थितिबंध जाणवो.
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१८२. अपरा उत्कृष्टभक्तमिथ्यात्वशेषमेकेन्द्रियाणाम् ।
पल्यासख्यांशोना लघुः ।
शेष बाकीनी (८५) प्रकृतिओनो उत्कृष्टस्थितिने मिथ्यात्वनी स्थिति वडे भागतां जे आवे ते (एकेंद्रियने विषे उत्कृष्ट स्थिति बंध जाणवो अने जघन्य स्थितिबंध पल्योपमना असंख्येयभागे ओछो जाणवो) आ प्रमाणे- 33 = ७० = , 50 : 33 = १, ४० : ७० = ४, १५: ७० = 12, १८ : ७० = उप, १७ : ७० = , १२ : ७० = ध, १४ : ७० = x = 1, १६ : ७० = उच, २० : ७०=3, १२ : ७० = २४, १७३ : ७० =
१८३. द्वित्रिचतुरक्षासज्ञिनि पञ्चविंशतिपश्चाशच्छतसह
गुणिता । बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिद्रिय अने असज्ञिपंचेंद्रिय ने विषे अनुक्रमे पच्चीसगुणो, पच्चासगुणो,सोगुणो'अने हजारगुणो उत्कृष्ट स्थितिबध जाणवो अने जघन्यस्थितिबंध पल्योपमनो संख्यातमो भाग ओछो होय छे.
हवे ४ आयुष्यनो जघन्यस्थितिबंध कहे छ१८४. सुरनारकयोर्दशसहस्रसमाः शेषयोः क्षुल्लकः ।
देवायुष्य अने नारकायुष्यनो १० हजार वर्ष जघन्यस्थितिवध भने शेष-मनुष्यायुष्य अने तिर्यचायुष्यनो क्षुल्लकभव जाणवो.
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१८५. भिन्नमबाधा ।
सर्वप्रकृतिओनो जघन्य स्थितिबंधने विषे अबाधाकाल
अंत होय.
૪
१८६. षोडशघनः मुहूर्ते क्षुल्लाः ।
१६
हवे क्षुल्लकभवनुं स्वरूप कहे छे
एक मुहूर्त्तमां १६ नो घन एटले १६ x १६ = ६५६ × ४०९६ × १६ = ६५५३६ क्षुल्लकभव थाय छे.
१८७. षोडशवर्गावलिका : ( क्षुल्ले) ।
एक क्षुल्लकभवमां १६ नो वर्ग पटले १६ × १६ = २५६ आवलिका थाय छे.
१८८. सप्तत्रिंशच्छत त्रिसप्ततिः प्राणाः ( मुहूत्तें) । एक मुहूर्त्त मां ३१७३ श्वासोच्छ्वास थाय छे.
=
हवे उत्कृष्टस्थिनिबंधना स्वामी कहे छे१८९. अविरतो जिनस्य पराम् ।
मिथ्यात्वाभिमुख अधिरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य जिननाम कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति बांधे छे.
१९०. अप्रमत्त आहारकद्विकाऽमरायुषाम् ।
प्रमत्तभावाभिमुख अप्रमत्तयति आहारकविक अने देवायुष्यनी उत्कृष्टस्थिति बांघे छे.
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१९१. शेषाणां मिथ्यादृक् ।
बाकीनी ११६ प्रकृतिनी उष्टस्थिति मिथ्यादृष्टि बांधे छे. १९२. विकलसूक्ष्माऽऽयुस्त्रिकसुरक्रियनरकद्विक तिर्यनराः
मिथ्यात्वी तिर्यच अने मनुष्य-विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक अने आयुष्यत्रिक, देवद्विक, वैक्रियद्विक अने नरकद्विकनी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे. १९३. एकाक्षस्थावरातपान् ईशानान्तः ।
ईशानदेवलोक सुधीना देवो-एकेंद्रियजाति, स्थावर अने आतपनी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे. १९४. तिर्यगौदारिकद्विकोद्योतसेवात्तं सुरनारकाः ।
देवो अने नारको-तिर्यचद्विक, औदारिकद्विक, उद्योत अने छेवटुं संघयणनी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे. १९५. शेषाणां चतुर्गतिकाः ।
बाकीनी ९२ प्रकृतिओनी चारे गतिवाला मिथ्यात्वी उत्कृष्टस्थिति बांधे छे. १९६. आहारकजिनयोरपूर्वो लघ्वीम् ।
अपूर्वगुणस्थानवर्ती क्षपक-आहारकद्रिक अने जिननामनी जघन्यस्थिति बांधे छे.
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१९७. सज्वलनपुंसोरनिवृत्तिः । ___ अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती क्षपक-संज्वलन कषाय ४ अने पुरुषवेदनी जघन्यस्थिति बांधे छे. १९८. सातयशउच्चाऽऽवरणविघ्नानां सूक्ष्मः ।
सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती क्षपक-सातावेदनीय, यश:नाम, उच्चगोत्र, आवरण-५ ज्ञानावरण ४ दर्शनावरण ए ९ अने ५ अंतरायनी एम १७ प्रकृतिनी जघन्यस्थिति बांधे छे. १९९. वैक्रियषट्कस्यासज्ञी।
पर्याप्त भसंत्री पंचेंद्रिय तिर्यच-वैक्रियषट्कनी जघन्यस्थिति बांघे छे. २००. आयुषां सङ्ग्यपि । _____ संज्ञी भने असंज्ञी पंचेंद्रिय चारे आयुष्यनी जघन्यस्थिति बांधे छे. २०१. शेषाणां बादरपर्याप्तकाक्षः ।
शेष-बाकीनी ८५ प्रकृतिनी बादर पर्याप्त एकेंद्रिय जघन्यस्थिति बांधे छे. २०२. सादिध्रुवेतरोऽजघन्यः सप्तसु ।
सादिबंध, अनादिबंध, ध्रुवबंध अने अध्रुवबंध ए चार भांगा जाणवा अथवा उत्कृष्टबंध, जघन्यबंध, अनुकृष्टबंध अने अजघन्यबंध ए चार भांगा जाणवा. सात मुलप्रकृतिमा अजघन्यबंध सादि, अनादि, ध्रुव अने अध्रुव एम चार भेदे होय.
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२०३. साधध्रुवौ शेषत्रिके ।
सात मूलप्रकृतिना बाकीना-जघन्य, उत्कृष्ट अने अनुत्कृष्ट ए त्रण बंधमां सादि अने अध्रुव ए बे मेद होय छे. २०४. आयुष्षु ।
चारे आयुष्यमा उत्कृष्टादि ४ बंधमां सादि अने अध्रुव ए बेज भांगा होय. २०५. सज्वलनावरणनवकविघ्नेऽजघन्यश्चतुर्धा ।
संज्वलन ४, आवरण ९ अने अंतराय ५ मां अजघन्यस्थितिबंध-सादि, अनादि, ध्रुव अने अध्रुव एम चार भेदे होय. २०६. शेषत्रिके सायध्रुवौ ।
बाकीना त्रण-जघन्य, उत्कृष्ट भने अनुत्कृष्टबंधमां सादि भने अध्रुवबंध होय. २०७. शेषाणां चतुर्धा । __ बाकीनी १०२ प्रकृतिनो जघन्य आदि चार प्रकारनो बंध सादि अने अध्रुव छे.
हवे गुणठाणाने विषे स्थितिबंध कहे छे२०८. द्वितीयादाऽऽष्टममन्तःकोटाकोटी।
बीजा गुणस्थानथी आठमा गुणस्थान सुधी अंताकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण ज स्थितिबंध होय.
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२०९. नोनो मिथ्यादक्सयभव्येतरे ।
मिथ्यादृष्टि भव्य अने अभव्य संशीमां अंतःकोडाकोडी सागरोपमथी ओछो बंध न होय.
हवे स्थिति धनु अल्पबहुत्व कहे छ२१०. यतो बादरसूक्ष्मपर्याप्ताऽपर्याप्ते लघुः, सूक्ष्मेतरद्वये
अपर्याप्तपर्याप्ते गुरुः, द्वयक्षद्वये लघ्वपर्याप्तेतरे गुरुः, त्रिचतुरसज्ञिषु लघुगुरू, यतौ गुरुर्दे शे लघुगुरू, सुदृक्सज्ञिषु स्तोकाऽसङ्ख्याधिकस
ङ्ख्याधिक ७-सङ्ख्याधिक ११ सङ्ख्यसङ्ख्यगुणम् । यतिमा(मुनिमां)जघन्य स्थितिबंध थोडोबादर पर्याप्त एकेंद्रियमा तेथी असंख्यातगुण, सूक्ष्मपर्याप्त एकेंद्रियमां तेथी विशेषाधिक;बादर अपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक,सूक्ष्म अपर्याप्तभां तेथी विशेषाधिक, सूक्ष्म अपर्याप्तमा उत्कृष्टस्थितिबंध तेथी विशेषाधिक, बादर अपर्याप्तमां तेथी विशेषाधिक, सूक्ष्म पर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, बादर पर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, बेइंद्रिय पर्याप्तमा जघन्यस्थितिबंध तेथी संख्यातगुण, बेइंद्रिय अपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, बेइंद्रिय अपर्याप्तमां उत्कृष्टस्थितिबंध तेथी विशेषाधिक, बेइंद्रियपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, तेइंद्रियपर्याप्तमा जघन्यस्थितिबंध तेथी विशे
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षाधिक,तेइंद्रियअपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक,तेइंद्रियअपर्याप्तमा उत्कृष्टस्थितिबध तेथी विशेषाधिक, ते इंद्रियपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, चउरिंद्रिय पर्याप्तमा जघन्य स्थितिबंध तेथी विशेषाधिक,चउरिंद्रिय अपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक,चरिंद्रिय अपर्याप्तमा उत्कृष्टस्थितिबध तेथी विशेषाधिक, चउरिंद्रियपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, असंज्ञिपंचेंद्रिय पर्याप्तमा जघन्यस्थितिबंध संख्यातगुण, असंज्ञिपंचेंद्रिय अपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, असंज्ञिपंचेंद्रिय अपर्याप्तमा उत्कृष्टस्थितिबंध तेथी विशेषाधिक, असंक्षिपंचेंद्रियपर्याप्तमा तेथी विशेषाधिक, तेथी यतिमा उत्कृष्टस्थितिबंध संख्यातगुण, तेथी देशविरतिमां जघन्यस्थितिबंध अने उत्कृष्टस्थितिबघ तथा अविरत सम्यरदृष्टि अने संज्ञिपंचेंद्रिय अपर्याप्त-पर्याप्तमां जघन्यस्थितिबध अने उत्कृष्टस्थितिबंध अनुक्रमे संख्यातगुण होय. २११. सक्लेशेन ज्येष्ठा विशुद्धेरपराऽनरामरतिर्यगाऽऽ
युषाम् । मनुष्य देव अने तिर्यचना आयुष्यने वजी ने बाकीनी सर्वकर्मप्रकृतिनी उत्कृष्टस्थिति तीव्र कषायना उदये बंधाथ अने अपरा-जघन्या विशुद्धि वडे बंधाय.
हवे योगर्नु अल्पबहुत्व कहे छे२१२. सूक्ष्मनिगोद-बादरविकलामनसमन-आद्यपर्याप्त
लघ्वाद्यद्विकगुरुपर्याप्तलघुगुर्वपर्याप्तत्रसगुरु-पर्या
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co
र्यानरदेवासनिगोदनो आदि बेइंद्रिय, तेई समय
प्तलघुगुर्वनुत्तरग्रैवेयकाकर्मनरतिर्यगाहारकनारकति
र्यङ्नरदेवगुरुरसङ्ख्येयघ्नो योगः। लब्धि अपर्याप्त मूक्ष्मनिगोदनो आदि समये अल्पयोग होय तेथी अपर्याप्त बादर पकेंद्रिय विकलेंद्रिय-बेइंद्रिय, तेई द्रय अने चउरिंद्रिय, असंशिपंचेंद्रिय अने संशिप'चेंद्रियनो प्रथम समये जघन्ययोग अनुक्रमे असंख्यातगुण, तेथी आधतिक-अपर्याप्त सूक्ष्मनिगोद अने बादर एकेंद्रियनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण, तेथी पर्याप्त सूक्ष्म निगोद अने बादर एकेंद्रियनो लघुगुरुजघन्ययोग अने उत्कृष्टयोग अनुक्रमे असंख्यातगुण, तेथी अपर्याप्त प्रल-बेद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिद्रिय, असंक्षिपंचेंद्रिय भने संशिपंचेंद्रियनो उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण, तेथी पर्याप्त प्रसनो जघन्य अने उत्कृष्टयोग अनुक्रमे असख्यातगुण, तेथी अनुत्तरवासीदेवनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण,तेथी प्रैवेयकदेवनो उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण, तेथी अनुक्रमे अकर्म-युगलिक मनुष्य अने तिय चनो उत्कृष्टयोग, तेथी आहारकशरीरनो उत्कृष्टयोग, तेथी नारक, तिर्यंच मनुष्य अने शेषदेवनी उत्कृष्टयोग असंख्यातगुण होय छे.
हवे योगनी वृद्धि कहे छे२१३. अपर्याप्त प्रतिक्षणमसङ्ख्यगुणवीर्यम् । __ अपर्याप्त जीवमां समये समये असंख्षातगुण वीर्यवृद्धि होय छे. २१४. प्रतिस्थितिबन्धेऽसङ्ख्यलोकाः स तस्वध्यवसाया
अधिकाः।
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आयुषोऽसङ्ख्यघ्नाः। एकेकस्थितिबंधमां असंख्यलोकाकाशना प्रदेश प्रमाण अध्यवसायो होय छे ते आयुष्यवर्जी ने सात कर्ममां दरेकस्थितिमा विशेषाधिक होय अने आयुष्यमां असख्यातगुण जाणवा.
हवे अनुभागबंध कहे छे२१५. सक्लेशविशुद्धिभ्यां तीव्रमन्दरसा अशुभाः ।
अशुभ प्रकृतिनो तीवरस संक्लेशवडे अने मंदरस विशुद्धि पडे बंधाय छे. २२६. शुभा विपर्ययात् ।
शुभ प्रकृतिनो तीव्ररस विशुद्धि वडे अने मंदरस संक्लेश चडे बंधाय छे. २१७. शिलामहीरजोजलरेखासमैः कषायैः सङ्क्लेशैश्चतुः
स्थानादिरविघ्नदेशघात्यावरणपुंसज्वलने द्विस्था
नादिदेश सर्व. चैक त्रिचतुः । पर्वत, पृथ्वी, धूल अने पाणीमां रेखासमान कषाय वडे अशुभ प्रकृतिनो अनुक्रमे चउठाणिओ त्रण ठाणिोबे ठाणि प्रो अने एक ठाणि ओ रस बंधाय, शुभ प्रकृतिनो विपरीत पणे-धूल, पृथ्वो अने पर्वतमां रेखा समान चउठाणिओ, त्रण ठाणिओ
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अने बे ठाणिो रस बंधाय, एक ठाणिओ रस होय नहिं. अंतराय ५, देशघाति आवरण-शानावरणीय ४, दर्शनावरणीय ३, पुरुषवेद अने संज्वलन कषाय ४ ए सत्तर प्रकृति बजी ने शेष प्रकृतिनो बे ठाणिओ विगेरे रस बंधाय. देशघाति प्रकृति २५ नो एक ठाणिओ रस बंधाय अने सर्वघाति प्रकृति २० नो त्रण-चार ठाणियो रस बंधाय.
हवे वर्गणा कहे छ२१८. औदारिकवैक्रियाहारकतैजसभाषाप्राणमनःकर्मणां
वर्गणाः ।
औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, भाषा, प्राणश्वासोच्छ्वास, मन अने कार्मण ए आठ वर्गणाओ छे. २१९. ध्रुवाध्रुवप्रत्येकबादरसूक्ष्ममहास्कन्धान्तरितशून्यचतु
क' च । ध्रुव, अध्रुव, ध्रुवशुन्य,' प्रत्येक, ध्रुवशून्य', बादर, ध्रुवशून्य, सूक्ष्म, ध्रुव शून्य', महास्कंध आ वर्गणाओ छे. २२०. अभव्यानन्तनाणुर्जघन्य औदारिकादिग्रहणे अन
न्तांश यावत् ग्रहण सर्वत्र । अभव्यथी अनंतगुण परमाणुवाला स्क'धो औदारिकादिने ग्रहणयोग्य वर्गणा थाय छे. त्यांथी सिद्धना अनंतभाग सुधी सर्व ठेकाणे ग्रहण योग्य रहे छे.
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२२१. कर्मणि जघन्यं सर्वजीवाऽभव्यानन्तघ्नरसप्रदेशम् ।
कर्मयोग्य दलिकमां जघन्थथी सर्वजीवथी अनंतगुण अने अभव्यथी अनंतगुण रस अने प्रदेश होय छे. सर्वजीवथी अनंतगुण रसवाला अने अभव्यथी अनंतगुण प्रदेशवाला कर्मस्कंधोने जीव ग्रहण करे छे. २२२. प्राग् भाषाया अष्टस्पर्शाः ।
भाषा वर्गणाथी पहेलानी औदारिकादि चार वर्गणा आठ स्पर्शवाली छे.
हवे कर्मग्रहण बाद आठे कर्मने केटलो भाग आवे ते कहे छे
बचण२२३. यथास्थिति प्रदेशाधिक्यं वेद्ये विशेषेण ।
स्थिति प्रमाणे अर्थात् जेनी स्थिति ओछी होय तेने कर्मदलिक भागमा मोछो आवे अने जेनी स्थिति वधु होय तेने वधु भाग मले.
वेदनीयकर्मने सहुथी वधु भाग मले.
...
हवे उत्तर प्रकृतिना भाग कहे छे- २२४. स्वानन्तशः सर्वघातिनाम् ।
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पोतानी मूलप्रकृतिने जे भाग प्राप्त थयो छे तेनो अनंतमो भाग सर्वघाति प्रकृतिने मले छे.
हवे गुणश्रेणि कहे छे
-२२५. सुदृग्देशसर्वविरतानन्तदर्शक्षपकोपशमकोपशान्त
क्षपकक्षीणमोहसयोगायोगा असङ्ख्यगुणनिजराः ।
सम्यग्दृष्टि, देशविरत, सर्वविरत, अनंतवियोजक, दर्शनमोक्षपक, चारित्रमोहोपशमक, उपशांतमोह, क्षपक, क्षीणमोह सयोगी अने अयोगी. आ जीवो अनुक्रमे असंख्यातगुण निर्जरावाला होय छे.
हवे गुणस्थाननुं अंतर कहे छे२२६. गुणेष्वन्तर्मुहूर्त्तार्धपुद्गलौ पराऽपरमन्तरम् ।
गुणस्थानोमां जघन्य अंतर अंतर्मुहूर्त्त अने उत्कृष्ट अंतर अर्धपुद्गलपरावर्त्त.
२२७. द्वितीये पल्या सङख्यांशो लघु ।
सास्वादनमां जघन्य अंतर पल्योपमनो असंख्यातमो भाग होय.
२२८. मिध्यात्वे षट्षष्टिद्वयं गुरु ।
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मिथ्यात्वमा उत्कृष्ट अंतर १३२ सागरोपमर्नु होय.
हवे पल्योपमनु स्वरूप कहे छे२२९. बादरसूक्ष्मा उद्धाराऽद्धाक्षेत्रपल्योपमा योजनवृत्तप
ल्यसप्ताष्टकृत्वोऽसङ्ख्यांशवालाग्रोद्धारे समयवर्ष
शतस्पृष्टाऽस्पृष्टखप्रदेशैः । ' पस्योपमना त्रण भेद-उद्धार, अद्धा अने क्षेत्र. ए त्रणमा सूक्ष्म अने बादर एम छ भेद होय. चार गाउ लांबो पहोलो अने अंडो गोल पालो युगलियाना माथाना वालना एक खंडना सात वार आठ आठ खड करीने भरीए. तेमांथी समये समये एकेक खंड काढतां पालो खाली थाय त्यारे एक बादर उद्धार पल्योपम थाय. (आ कहेवा मात्र छ पर्नु प्रयोजन नथी)
हवे ते पालना खंडने सो सो वर्षे काढतां ज्यारे खाली थाय त्यारे बादर अद्धा पल्योपम थाय. अने ते वालना खंडने स्पृष्ट जे आकाशप्रदेश ते समये समये एकेको अपहरतां स्पृष्ट प्रदेशने अपहरे त्यारे बादरक्षेत्र पल्योपम थाय. आत्रण बादरपल्योपमनु प्रयोजन नथी. हवे ते वालना खंडने असंख्यातखड करीने भरीर अने तेमांथी समये समये एकेक खंड काढतां ज्यारे खाली थाय त्यारे सूक्ष्म उद्धार पल्योपम थाय. अने सो सो वर्षे काढतां ज्यारे खाली थाय त्यारे सूक्ष्म अद्धा पल्योपम थाय अने ते पालाने वालना खंड फरस्या
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भने अणफास्या जे आकाशप्रदेश ते समये समये अपहार करतां ज्यारे पालाना सर्वप्रदेश अपहरीए त्यारे सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम थाय, २३०. कोटाकोटीदशक सागरोपमे ।
दश कोडाकोडी पल्योपमनो एक सागरोपम थाय.
हवे पुद्गलपरावर्तन स्वरूप कहे छे२३१. औदारिकादिसप्ततदन्यतरसर्वाणुपरिणामलोक
प्रदेशकालचक्रसमयानुभागबन्धस्थानोत्क्रमक्रम
मरणैर्द्रव्यक्षेत्रकालभावपुद्गलपरावर्ताः सूक्ष्मबादराः । एक जीव सर्वपरमाणुने जेटला काले औदारिकादि सात पणे परिणमावीने मूके हेटला काले बादरद्रव्यपुद्गलपरावर्त थाय. अने सातमांथी औदारिकादि कोइ पण एक शरीरपणे परिणमावीने जेटले काले मूके तेटला काले सूक्ष्मद्रव्यपुद्गल. परावत थाय. लोकाकाशना सर्व प्रदेशो उत्क्रम-जेम तेम (क्रम वगर) मरण वडे जेटले काले स्पर्श कराय त्यारे बादर क्षेत्रपुद्गलपरावत अने क्रमथी मरण वडे जेटले काले स्पर्श कराय त्यारे सूक्ष्मक्षेत्रपुद्गलपरावत थाय. कालचक्र-उत्सर्षिणी अवसर्पिणीना समयो क्रम वगर मरण वडे जेटले काले स्पर्श कराय त्यारे बादरकालपुद्गलपरावर्त अने क्रम वडे स्पर्श कराय त्यारे सूक्ष्मकालपुद्गलपरावर्त थाय. अनुभागबंध-रसबंधना स्थानो क्रम वगर मरण वडे जेटले काले स्पर्श कराय
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त्यारे बादरभावपुद्गलपरावर्त अने क्रम वडे स्पर्श कराय त्यारे सूक्ष्मभावपुद्गलपरावत थाय.
हवे प्रदेशवधना भांगा कहे छे२३२. अक्लिष्टनिद्रदर्शनभयकुत्साद्वितीयतृतीयतुर्यकषाय
विघ्नज्ञानघ्नानाममोहायुषामनुत्कृष्टश्चतुर्धा शेषे
द्विधा प्रदेशे।
अक्लिष्ट निद्रदर्शन-निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला अने स्त्या. नर्द्धि ए त्रण क्लिष्टनिद्रा सिवाय बाकीनी दर्शनावरणीय ६, भय, दुगंछा बोजा-अप्रत्याख्यानीय ४, त्रीजा-प्रत्याख्यानीय ४, चोथा-संज्वलन ४ कषाय, अंतराय ५, अने ज्ञानावरणीय ५, ए त्रीस (३०) उत्तर प्रकृतिओने तेमज मोहनीय अने आयुष्य घर्जीने ६ मूल प्रकृतिनो अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध चार प्रकारे (सादि, अनादि, ध्रुव अने अध्रुव) जाणवो. शेष-बाकीना त्रण प्रकारना प्रदेशब धमां तेमज शेष सर्वप्रकृतिमा सर्वप्रकारना प्रदेशबंधमां बे भेदे (सादि अने अध्रुव) बंध होय.
हवे योगस्थान आदिनु अल्पबहुत्व कहे छ२३३. योगप्रकृतिस्थितितदध्यवसायानुभागकर्मप्रदेशरसाः
श्रेण्यस ख्यांशासङ्ख्यघ्नचतुरनन्तगुणाः । श्रेणिना असंख्यातमा भागमा जेटला आकाशप्रदेश होय तेटला योगस्थानो छे. तेथी प्रकृति मेदो, स्थिति मेदो,
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स्थितिबंधना अध्यवस्थानो अने रसबंधना श्रध्यवस्थानो ए चार अनुक्रमे असंख्यातगुणा छे, तेथी कर्मप्रदेशो अनंतगुणा अने ते करतां रसना छेदो अनंतगुणा छे.
हबे श्रेणि, प्रतर अने घननु स्वरूप कहे छे२३४. सप्तरज्ज्वकैकप्रदेशतद्वर्गवर्गाः श्रेणिप्रतरघनाः ।
घनीकृत सात राज प्रमाण लोकनी लांबी एक प्रदेशनी श्रेणि ते सूची-श्रेणि अने तेनो वर्ग प्रतर अने तेनो वर्ग घन जाणवो. २४२ = ४, ४४४ = १६.
हवे उपशमश्रेणि कहे छे२३५. अनदर्शननपुंसकस्त्री वेदहास्यादिषटपुंवेदाननन्तस
द्विकैकान्तरितानामुपशमः । उपशमणि करनार प्रथम अन-अनंतानुबंधी चार कषायनो उपशम करे, ते पछी दर्शन-त्रण दर्शनमोहनीयनो, ते पछी नपुंसकवेदनो, ते पछी स्त्रीवेदनो ते पछी हास्यादि. षटकनो, ते पछी अननंत-अप्रत्याख्यानीय अने प्रत्याख्यानीय बब्बे क्रोधादिनो अने संज्वलनकषायनो आंतरे उपशम करे छे.
हवे क्षपकश्रेणि कहे छे२३६. अनमिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वत्र्यायुरेकविकलाक्षस्त्या
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नर्द्धित्रिकोद्योततिर्यङ्नरकस्थावरद्विकसाधारणातपाष्टकषायनपुंस्त्रीहास्यादिपुंसचलननिद्राद्वयविघ्नावरण
क्षयः क्षपके । क्षपकश्रेणि करनार, प्रथम चार अनंतानुबधिकषायनो क्षय करे. पछी मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अने समकितमोहनीय ए प्रणनो अनुक्रमे क्षय करे, पछी त्रण आयुष्यनो पछी एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय. थिणद्धित्रिक, उद्योत नाम, तिर्यंच. द्विक, नरकद्विक, स्थावरद्विक, साधारणनाम अने भातपनाम ए सोलनो क्षय करे पछी आठ कषायनो क्षय करे पछी नपुंसकवेद अने ते पछी स्त्रीवेदनो क्षय करे, ते पछी हास्यादिषट्कनो ते पछी पुरुषवेदनो ते पछी संज्वलन चार कषायनो अनुक्रमे, ते पछी बे निद्रानो ते पछी अंतराय ५, ज्ञानावरणीय ५ अने दर्शनावरणीय ४ ए १४ नो क्षय करे. २३७. कार्याभ्यासादिकतवैषम्यं वीर्यविघ्नघातजवीर्यम् ।
कार्यनी निकटता आदि वडे कयु छे जीवप्रदेशोनुं विषमपणु जेमां एवा वीर्यातरांयना नाशथी थनार योग ते वीर्य छे. २३८. असङ्ख्यलोकसमं प्रदेशेऽपरम्परमपि । ___ एकेक प्रदेशे वीर्यना अविभागो मसंख्यात लोकाकाशना प्रदेश प्रमाण होय छे.
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२३९. अनन्ताऽसङ्ख्य सङ्ख्यगुणभागेषु सर्व जीवाऽसख्यलोकखांशोत्कृष्टमङ्ख्याः ।
अनंत गुण अने भागमां सर्वजीव, असंख्य गुण अने भागमां असंख्य लोकाकाशना प्रदेशो अने संख्य गुण अने भागमां उत्कृष्ट संख्या ग्रहण करवी.
२४०. बन्धनसङ्क्रमोद्वर्त्तनाऽपवर्त्तनोदीरणोपशमनानिधत्तनिकाचनानि करणानि ।
बंधन, संक्रमण, उद्वर्त्तना, उदीरणा, उपशमना, निधत्त अने निकाचन ए आठ करण छे.
२४१. बद्धबद्ध्यमानानां बद्धमाने सङ्क्रमः ।
बंधापली अने बंधाती प्रकृतिनो बंधातीमां संक्रम थाय. २४२. यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तयः करणान्यात्मपरिणामाः ।
यथाप्रवृत्त अपूर्ण अने अनिवृत्ति ए त्रण करण छे. करण एटले आत्मानो परिणाम.
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