Book Title: Karmarth Sutram
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 64
________________ ४७ (सङ्ख्यातादिमेदः) हवे संख्यातादिनुं स्वरूप कहे छ१४२. द्वितः सङ्ख्या। संख्यातु एक होय छे । असंख्यातना त्रण भेद-परीत्त असंख्यात, युक्त असंख्यात अने असंख्यात असंख्यात । एवी रीते अनंतना त्रण भेद-परीत्त अनंत, युक्त अनंत अने अनंतानंत । एम सात भेद थया । दरेक जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट एम त्रण भेदे होय, तेथी सातने त्रण गुणतां एकवीश मेद होय । तेमां जघन्य संख्यातु बे ज होय, कारणएकनी संख्या होय नहीं, बेथी ज संख्या होय । त्रण चार पांच विगेरे यावत् उत्कृष्ट संख्यातु आवे त्यां सुधी मध्यम संख्यातु जाणवु। हवे उत्कृष्ट संख्यातु कहे छे -- १४३. योजनसहस्रोद्वेधाः सशिखवेदिकान्ताः शतसहस्रयोज नायामा वृत्ताः पल्याः शलाकाप्रतिशलाकामहाशलाका अनवस्थित आदौ तत्सर्षपावगाढमानः परतः प्रतिक्षेपं शलाकादौ सर्वपक्षेपः । एक हजार योजन उडा लाखयोजन पहोला, गोल वेदिकाना अंत सधी शिखा सहित सरसवे करी भरेला चार पाला कल्पवा। प्रथम अनवस्थित नामे, बीजो शलाका नामे, त्रीजो प्रतिशलाका नामे अने चोथो महाशलाका नामे। त्यां पहेलो पालो सरसवे करी शिखा सहित भरीए । पछी ते भरेल अनवस्थित पालो उपाडीने तेमांथी एकेक सरसव द्वीप अने समुद्रने विषे

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