Book Title: Karm Prakruti Part 01 Author(s): Shivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain Publisher: Ganesh Smruti Granthmala View full book textPage 4
________________ प्रकाशकीय जैनदर्शन और धर्म के अनेक लोक-हितकारी एवं सार्वभौमिक अबाधित सिद्धान्तों में से नामकरण के अनुसार इस ग्रंथ का सम्बन्ध एक अद्वितीय कर्मसिद्धान्त से है। इस ग्रंथ में आत्मा का कर्म के साथ सम्बन्ध कैसे जुड़ता है, आत्मा के किन परिणामों से कर्म किन-किन अवस्थाओं में परिणत होते हैं, किस रूप में बदलते हैं, जीव को किस प्रकार से विपाक वेदन कराते हैं और कर्मक्षय को वह कौनसी विशिष्ट आत्मिक प्रक्रिया है कि अतिशय बलशाली प्रतीत होनेवाले कर्म निःशेष रूप से क्षय हो जाते हैं ? आदि बातों का सारगर्भित शैली में प्रतिपादन किया गया है। इस ग्रंथ का प्रकाशन श्री अ. भा. साधुमार्गी जैन संघ को अन्तर्वर्ती 'श्री गणेश स्मृति ग्रंथमाला' के द्वारा किया जा रहा है। संघ का प्रमुख लक्ष्य है व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण और समाज का समद्धिसंपन्न विकास । व्यक्तित्व निर्माण के लिये आवश्यक है आत्मस्वरूप का बोध करते हुए सदाचारमय आध्यात्मिक जीवन जीने की कला सीखना और समाजविकास पारस्परिक सहयोग, सामूहिक उत्तरदायित्व के द्वारा जनहितकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने पर निर्भर है। इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिये संघ द्वारा विविध प्रवृत्तियां संचालित हैं। इनके लिये पृथक-पृथक समितियां और विभाग हैं। इनमें से श्री गणेश स्मृति ग्रंथमाला के माध्यम से साहित्य -प्रकाशन का कार्य किया जाता है। ग्रंथमाला का उद्देश्य जैन संस्कृति, धर्म, दर्शन और आचार के शाश्वत सिद्धांतों का लोकभाषा में प्रचार तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण करना है। उद्देश्यानुसार एवं इसको पूर्ति हेतु ग्रंथमाला की ओर से सरल, सुबोध भाषा और शैली में जैन आचार-विचार के विवेचक, प्रचारक अनेक ग्रंथों और पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है । अब इसी क्रम में कर्म-सिद्धान्त के विवेचक 'कर्मप्रकृति' जैसे महान् ग्रंथ को प्रकाशित कर रहे हैं। ग्रंथ पृष्ठसंख्या को दृष्टि से विशाल है। अतएव सुविधा के लिये दो खंडों में विभाजित किया है। यह प्रथम खंड है। इसमें 'बंधनकरण' नामक प्रकरण है। शेष प्रकरण द्वितीय खंड में संकलित हैं। यह द्वितीय खंड भी शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। परमपूज्य समताविभूति, जिनशासनप्रद्योतक, धर्मपाल-प्रतिबोधक आचार्य श्री नानालालजी म. सा. ने कर्मसिद्धांत को अनेक गुत्थियों को अपनी विचक्षण प्रतिभा के द्वारा सहज एवं सरल तरीके से सुलझा कर प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही अनेक स्थलों पर कर्मसिद्धांत के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करनेवाली व्याख्याएं प्रस्तुत की। आचार्यश्री द्वारा व्याख्यायित होने से ग्रंथ की उपयोगिता में बहुत अधिक निखार आया है। इस उपकृति के लिये संघ आचार्यश्री का ऋणी रहेगा। ग्रंथ का संपादन श्री देवकुमारजी जैन ने उत्साह के साथ संपन्न किया, तदर्थ श्री जैन धन्यवाद के पात्र हैं। इस ग्रंथ के प्रकाशन हेतु श्रीमान् स्व. सेठ भीखनचन्दजी सा. भूरा देशनोक के सुपुत्र श्री दीपचन्दजी सा. भूरा से आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है। श्री भूराजी देश के प्रतिष्ठित उद्योगपति, व्यवसायी एवं श्री अ. भा. साधुPage Navigation
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