Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 06
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 15
________________ इन्द्रियों से दर्शन चक्षु दर्शन (आंख से) अचक्षु दर्शन स्पर्शेन्द्रिय रसनेन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय श्रवणेन्द्रिय प्रश्न यहां यह उठता है कि चक्षु दर्शन कहा यह तो ठीक है क्योंकि आंखों से देखना होता हैं इसलिए आंखों से देखने के कारण चक्षु दर्शन कहा यह योग्य है । परन्तु अचक्षुदर्शन कैसे योग्य है ? क्योंकि अचक्षु अर्थात् चश्च के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से देखना नहीं होता है । इसके उत्तर में कहते हैं कि-चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से भी जिन पुद्गल पदार्थो के स्पर्शरसादि विषयों को आत्मा तक पहुँ वाया जाता है, वह भी आत्मा के लिए ज्ञान-दर्शन-कारक ही बना। यद्यपि चक्षु इतर इन्द्रियों से आंख की तरह देखना नहीं होता है, फिर भी स्पर्श-रसादि का अनुभव ज्ञानदर्शनात्मक होता है । अतः चक्षु एवं अचक्षु दर्शन कहना उचित है । आंख देखने के माध्यम से वर्णादि (रंग-रूप) विषयों को आत्मा तक पहुँचाती है । कान सुनने के माध्यम से शब्द-ध्वनि को आत्मा तक पहुँचाता है। नाक संघने के माध्यम से गंध के विषय को आत्मा तक पहुँचाता है । जीभ चखने के माध्यम से खट्टे-मीठे रस के विषयों को आत्मा तक पहुँचाती है । स्पर्शेन्द्रिय, त्वचा स्पर्श के माध्यम से ठण्ठे-गरम आदि स्पर्श के विषयों को आत्मा तक पहुँचाती हैं। सभी इन्द्रियों का आत्मा तक विषयों का पहुँचने का काम एक जैसा ही है । आत्मा के ज्ञान-दर्शन में सभी इन्द्रियां निमित्त-सहायक बनती है, अतः चक्षु-अचक्षु दर्शन दोनों संज्ञा योग्य ही हैं। दर्शन गुण एवं दर्शनावरणीय कर्म "दर्शन" का अर्थ है “देखना" । दर्शन यह आत्मा का गुण है । ज्ञाता-द्रष्टा लक्षणवान् आत्मा ज्ञानगुण के कारण ज्ञाता एवं दर्शन गुण के कारण द्रष्टा कहलाती है । ज्ञान से जानने की क्रिया होती है, एवं दर्शन से देखने की किया होती है । ज्ञान-दर्शन सहभावी गुण है । अर्थात् अन्यान्य मिलकर साथ रहते हैं । जानने-देखने की क्रिया बिना किसी विशेष अन्तर के एक साथ होती है । अतः आत्मा के ज्ञानदर्शन गुण पर आधारित ज्ञाता-द्रष्टां भाव एक साथ रहते हैं । ज्ञान-दर्शन गुण, क्रिवा एवं शक्ति उभय रूप में व्यवहरित होते हैं । दर्शन सामान्यकार होता है । कर्म की गति न्यारी १३

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