Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 06
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
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इस तरह सभी एक धुन में गा रहे थे कि आश्चर्यकारी चमत्कार हुआ। सबके आश्चर्या के बीच मन्दिर के द्वार अपने आप खुल गए। सभी ने उत्कृष्ट भाव से प्रभु के दर्शन किये। इस तरह प्रभुदर्शन से अनेक प्रकार के अद्भुत चमत्कार हुए हैं।
मगधाधिपति श्रेणिक राजा, जो कि अपने जीवन में सामायिक व्रत-पच्चक्खाणादि नहीं कर सके, ने चौथे अविरल सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक पर रह कर नित्य भक्तिभाव भरी प्रभु पूजा करते हुए, तथा नित्य प्रभुदर्शन से विशुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त किया, तथा आगे बढ़कर तीर्थकरनामकर्म उपार्जन किया । फलस्वरूप आगामी चौबीशी में प्रथम तीर्थंकर श्री पद्मनाभ स्वामी बनने का यश प्राप्त किया।
ग्यारहवीं शताब्दी के गुजरात की गादी के महाराज कुमारपाल भूपाल ने कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य महाराज से आहत धर्म प्राप्त किया। इतने बड़े राज्य के राजा होते हुए भी वो प्रतिदिन त्रिकाल प्रभुदर्शन एवं त्रिकाल अष्टप्रकारी प्रभुपूजा आदि अद्भुद भक्ति भाव से नियमित करते थे। इस तरह.राज्य के राजा होते हुए भी शुद्ध १२ व्रतधारी परम जैन श्रावक बने थे।
भक्ति में तल्लीन
रामायण में जिस रावण को एक दुष्ट पात्र के रूप में वर्णित किया गया है, वे व्यक्तिगत रूप से स्वयं खराब नहीं थे, परन्तु उनके जीवन की एक घटना खराब थी। रावण जिनेश्वर परमात्मा का महान् उपासक था । अपनी पत्नी मंदोदरी के साथ अष्ठापद महातीर्थ पर नृत्य भक्ति में तल्लीन बना था। रावण स्वयं प्रभु के समक्ष वीणा बजाते हुए भक्ति गीत गा रहे थे और उनकी पत्नी नृत्य कर रही थी। भक्ति की धुन में एक प्रकार की मस्ती थी। योगानुयोग वीणा का एक तार टूट गया। संगीत में स्वर भंग होने लगते ही चतुर रावण ने सोचा कि मंदोदरी के नृत्य में कहीं विघ्न न पड़े, इसलिए रावण ने शीघ्रता से अपनी जाँघ की नस निकाल कर उस वीणा में जोड़ दी और उसी स्वर में वीणा बजती रही । भक्ति में तल्लीन, तःमय और तदाकार बने हुए रावण ने तीर्थकरनामकर्म उपार्जन किया । परिणाम स्वरूप महाविदेह क्षेत्र में तीर्थकर बनकर वे मोक्ष में जायेंगे। ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है।
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कर्म की गति न्यारी
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