Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 06
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 44
________________ दर्शनावरणीय कर्म के दर्शन चतुष्क और निद्रापंचक नामक दो प्रमुख भेदो में प्रथम दर्शन-चतुष्क का वर्णन किया। अब द्वितीय विभाग निद्रापंचक का विचार करते हैं। निद्रापंचक श्री उत्तराध्ययन सूत्र के ३३वें “कर्मप्रकृति" अध्ययन के ५ वें श्लोक में पांच निद्रा का नामनिर्देश इस प्रकार किया है निद्दा तहेव पयला, निहानिद्दा य पयला पचलाय तत्तो य थीणगद्धि, पंचमा होइ नायव्वा ॥५॥ निद्रापंचक निद्रा । २ निद्रानिद्रा ३ प्रचला प्रचला प्रचला थीणद्धि जैन दर्शन में पांच प्रकार की निद्रा बताई गई है। संसार में कहीं भी किसी भी धर्म या दर्शन में निद्रा के विषय में ऐसा वर्णन नहीं मिलेगा जैसाकि जैनदर्शन के कर्मशास्त्र में मिलता है । निद्रा अर्थात् नींद आना या नींद लेना । यह क्रियापरक है । निद्रा आत्म गुण स्वरूप नहीं है परन्तु कर्म उदय जन्य है । ज्ञाता-द्रष्टाभाववान् आत्मा जो स्वयं ज्ञानदर्शनादि गुण से देखने-जानने आदि की क्रिया करती है वह आत्मा निद्रा लेने का काम नहीं कर सकती है । क्यों करें ? क्योंकि निद्रा ज्ञान-दर्शन का कार्य बन्द कर देती है। निद्रावस्था में आत्मा की जानने-देखने आदि की क्रिया बन्द हो जाती है। अतः निद्रा आत्मगुण परक नहीं, परन्तु कर्मोदय जन्य है । कर्मोदय जन्य होने के कारण निद्रा आत्मगुण घातक है । अतः यह घाती कर्म की प्रकृति में गिनी जाती है । आत्मगुण ज्ञान-दर्शन आदि का घात करने के कारण यह घातीकर्म का काम करती है । इतने विवेचन के बाद यह प्रश्न निरर्थक होता है कि -- नींद अच्छी है या खराब/नींद को कौन अच्छी मानेगा ? बस यही संसार के व्यवहार और अध्यात्म शास्त्र में बड़ा अन्तर है। सांसारिक व्यवहार में नींद को अच्छी मानी गई है। आयुर्वेद शास्त्र में नींद को उपयोगी मानी गई है । तथा आरोग्य की दृष्टि से भी नींद उपयोगी मानी है, परन्तु कर्म शास्त्र के नियमानुसार आत्मगुणों का घात करने वाली तथा ज्ञान दर्शन की अवरोधक नींद को अच्छी नहीं मानी गई है । अतः आध्यात्मिक महापुरुष नींद से लड़ते हुए उसे कहते हैं कि ४२ कर्म की गति न्यारी

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