Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 06
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 56
________________ निद्रा के उदय से प्रमादग्रस्त बने हुये भानुदत्त मुनि गुरु की हित शिक्षा के बावजूद भी क्रोधित हो जाते थे और पूर्वो की पुनरावृत्ति नहीं हो पाती थी। इस तरह काल बीतता गया। शिष्य को क्रोध करते हुये देखकर गुरु ने कहना ही छोड़ दिया । अब कौन कहे ? कौन जगाए ? प्रमाद और निद्रा इतना बढ़ी कि सारा प्रतिक्रमण भी नींद में ही बीतने लगा । कब प्रतिक्रमण शुरू हुआ और कब पूरा हुआ ? तथा कब क्या बोल गया ? और कब कौन क्या बोले ? उन्हें कुछ भी पता नहीं चलता था। इस तरह दिन-रात, निद्रा और प्रमाद में बीतने लगे। भानुदत्त मुनि सब कुछ भूल गये। पढ़ा-पढ़ाया सब चौपट हो गया और अन्त में वे मरकर दुर्गति में गये। कितना बड़ा भारी नुकसान इस निद्रा ने किया कि पूर्वधर जैसे महाज्ञानी महात्मा को भी दुर्गति में फैक दिया, तो सोचिये ! हमारे जैसे प्रमादिओं की क्या दशा होगी। इस बात को संबोध सित्तरी प्रकरण में कहते हुए लिखा है कि जइ चउदसपुष्वधरो, वसइ निगोएसु णंनय कालं । निद्दापमायवसगो, ता होहिसी कहं तुमं जीवा ॥ यदि निद्रा-प्रमाद के वश होकर १४ पूर्वधर महापुरुष भी गिरकर दुर्गतिनिगोद में चले जाते है और बहुत लम्बे काल तक उन्हें बहां रहना पड़ता है. तो हे जीव ! तेरे जैसे का क्या होगा ? इसका विचार आज से ही कर । वास्तव में निद्रा आलस-प्रमाद से बचना बहुत आवश्यक है। भगवान महावीरस्वामी इन्द्रभूति गौतम जैसे अप्रमत्त आद्यगणधर को भी जागृत करते हुए बारबार कहा करते थे कि "गोयमा ! समयं मा पमायए।" हे गौतम । एक समय मात्र भी प्रमाद मत करना। . दर्शनावरणीय कर्मबंध के कारणकर्मशास्त्र में कर्मों के भिन्न-भिन्न प्रकार के बंध-हेतु बताए गए हैं । कर्म शुभाशुभ प्रवृत्ति से बनते हैं । अशुभ पाप प्रवृत्ति से अशुभ कर्म का बंध होता है, और शुभ-पुण्य प्रवृत्ति से शुभ कर्म का बंध होता है। पाप-अशुभ कर्म फलतः दुखदायी होता है । अतः पुण्य-शुभ कर्म फलतः सुखदायी होता है । अतः कर्म के शुभ और अशुभ ये दो भेद होते हैं। जीव जन्म-जन्मांतर में जैसी ५४ कर्म की गति न्यारी

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