Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 06
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 29
________________ प्रशांत रस में मग्न तथा दोनों ही नेत्र जिसके प्रसन्नचित्त है, जिनकी देह कमल रूपी गोद स्त्री संग से शून्य - रहित है, तथा दोनों ही हाथों में किसी प्रकार के शस्त्र भी नहीं है, इस तरह स्त्री के अभाव में राग और काम रहित, तथा शस्त्रादि के अभाव में द्वेष रहित प्रभु का स्वरूप है । ऐसा राग-द्वेष रहित वीतराग स्वरूप जो कि प्रशांतरस भरपूर है ऐसा प्रभु का एवं प्रभु की प्रतिमा का वीतरागभाव का स्वरूप दर्शनीय है । इसलिए कहा कि - " तदसि जगति देवो, वीतरागस्त्वमेव "में एक मात्र आप ही वीतराग देव हैं । " जगत ; वीतराग की स्तुति हम किसी नाम से कर सकते हैं, क्योंकि वहां नाम का महत्त्व नहीं है, वीतरागता के गुण का महत्त्व है । इस भाव को एक श्लोक में इस प्रकार दर्शाया है भवबीजाङ्क, रजनना रागाद्याः क्षयमुपागना यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ भवबीज रूपी कर्म के अंकुर जो राग-द्वेष हैं वे जिनके सर्वथा क्षय हो चुके हैं ऐसे नाम स्वरूप से चाहे वे ब्रह्मा हों या विष्णु हों या हर हर महादेव हों या जिन-जिनेश्वर भगवान हों उन्हें मेरा नमस्कार हो । यहां प्रस्तुत श्लोक नमस्कार 'नाम' को नहीं, परन्तु वीतरागता के गुण को किया है । यही बात नमस्कार महामन्त्र "नमो अरिहंताणं" "नमो सिद्धाणं” मन्त्र पदों से अनन्त अरिहंत भगवंतों को एवं अनन्त सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार किया है । "अरिहंत" यह नाम नहीं है, परन्तु गुणवाचक पद है । अरिहंत नाम के कोई भगवान नहीं हुए हैं, परन्तु भगवान अरिहंत गुणवान होते हैं । अरि + हंत = अरिहंत | "अरि” अर्थात् आत्मा के काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग तथा द्वेषादि आंतर शत्रु । “हंत” अर्थात् उनका नाश जिसने किया है ऐसे भगवान अरिहंत कहलाते हैं । इस तरह जैन धर्म में नाम को नहीं, परन्तु गुण को महत्त्व दिया है, जैन धर्म व्यक्तिपरक नहीं अपितु गुणपरक है । स्वामी गुण ओलखी स्वामी ने जे भजे, दरिशण शुद्धता तेह पामे । ज्ञान चरित्र तप वीर्य उल्लास थी, कर्म जीपी वसे मुक्ति धामे ॥ .... कर्म की गति न्यारी २७

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