Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 06
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 26
________________ जीवन में प्रथम बार ही प्रभु के दर्शन पाकर भक्त अपनी भावना के उद्गार इस श्लोक के शब्दों में अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं कि-हे. जिनेश्वर ! वीतरागी अरिहंत देथ ! आपके चरण, कमल का दर्शन करके आज मैं मुझे मिली हुई दोनों आंखों की सफलता का अनुभव करता हूँ। आपके दर्शन से तीन लोक रूप संसार महासागर आज मुझे मात्र चुलूक रूप प्रतिभासित होता है । प्रथम दर्शन मात्र से ही भक्त ने कितनी उत्कृष्ट भावना प्रकाशित की है कि प्रभुदर्शन से वह अब इतने लम्बे चौड़े संसार-सागर को भी मात्र एक चुलूक प्रमाण मानने लगा है। जैसे नौका मिलने के बाद समुद्र का भय नहीं रहता है, वैसे ही प्रभु दर्शन की प्राप्ति से संसार में डूबने का भय नहीं रहता है । भक्त आज अपनी आँखों की घन्यता प्रकट करता है, अर्थात् इन आँखों ने आज दिन तक संसार में देखने जैसा ही देखा, परन्तु न देखने जैसा कुछ भी नहींदेखा है । इसलिए आज प्रभुदर्शन से अपने को धन्य मानता है । इसी भाव को पूज्य यशोविजयजी महाराज ऋषभजिन के स्तवन में निम्न रूप से प्रकट करते हुए लिखते हैं कि ऋषभ जिनराज मुज आज दिन अती भलो. ... गुण नीलो जेणे तुज नयण वीठो । दुःख टल्या सुख मल्या स्वामी तुम निरखता; - सुकृत संचय हुओ पाप नीठो ॥ हे ऋषभ जिनराज ! मेरा आज का दिन अत्यन्त अच्छा है जिससे कि तेर अनुपम गुणों को आज मैं दृष्टि से देख पाया हूँ। हे स्वामी ! आपको देखने सेआपके दर्शन करने से मेरे दुःखं दूर हो गए हैं और सुख प्राप्त हुआ है, तथा सुकृत का संचय हुआ है और पाप दूर भाग गए हैं। धन्य ते काय जेणे पाय तुज प्रणमीया; . .. तुज थूणे धन्य तेह धन्य जीव्हा ।।:: . धन्य ते हृदय जेणे सदा तुज समरतां; घन्य ते रात ने धन्य ते दीहा ॥ उनकी काया (शरीर) धन्य हैं जिन्होंने आपके चरणों में प्रणाम किया है, आपकी स्तुति-स्तवना करने वाले भी धन्व है और उनकी जीभ भी धन्य हो गई है, २४ .. . कर्म की गति न्यारी

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