Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 06
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 21
________________ इन्द्रियाँइन्द्रियाँ जड़ हैं और आत्मा चेतन है। इन्द्रियों की तरह मन भी जड़ है। ज्ञाता-दृष्टाभाववान् आत्मा अपने ज्ञान-दर्शनादि गुणों से स्वयं जो भी कुछ जान सकती थी और देख सकती थी उसकी सारी क्रिया कर्म के उदय के कारण बन्द हो गई । कर्म ने आत्मा की शक्तियों और गुणों को आच्छादित कर दिया है। कर्म योग से बने हुए तथाप्रकार के शरीर, इन्द्रियाँ और मन के बीच में बैठी हुई आत्मा को अब उन्हीं के माध्यम से क्रिया करनी पड़ती है। अतः कर्मग्रस्त आज हमारी आत्मा इन्द्रियों के माध्यम से देखती है तथा जानती है। मन के माध्यम से सोचती हैविचार करती है, और शरीर के माध्यम से विविध प्रवृत्ति करती है । तथाप्रकार के कर्मों के कारण सभी जीवों को कम-ज्यादा प्रमाण में इन्द्रियाँ मिलती हैं। अपने जन्म स्थान में जाकर जीव पर्याप्त अपर्याप्त नामक नाम कर्म से ६ पर्याप्तिओं में से न्यूनाधिक पर्याप्तियां पूरी करता है । इस प्रक्रिया में आहार से शरीर और शरीर में इन्द्रियाँ बनाने का काम आत्मा करती है। गति नाम कर्म के आधार पर आत्मा देव, मनुष्य, नरक तिथंच गति में जाती है, और उन गतियों में जाति नाम कर्म के आधार पर एक से पांच तक कम-ज्यादा इन्द्रियाँ बनाती है । तिर्यंच गति में जीव एक इन्द्रिय से लेकर ५ तक इन्द्रियाँ बनाता है । चक्षुदर्शनावरणीय कर्म के उदय से एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों को इन्द्रियाँ न्यून-कम मिलती हैं । एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय जीवों को मूल से ही चक्षु नहीं होती है। अतः चक्षुदर्शनावरणीयकर्म उनका पूरा ही उदय में रहता है तथा अचक्षुदर्शनावणीयकर्म में एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय जीवों को कम-ज्यादा इन्द्रियाँ मिलती हैं, और कर्णेन्द्रिय नहीं मिलती है । विकलेन्द्रिय में चउरेन्द्रिय जीवों को चक्षु मिलती है, परन्तु श्रवणेन्द्रिय (कान) नहीं मिलता है। अत चक्षुदर्शनावरणीय और अचक्षुदर्गनावरणीय कर्म दोनों ही उदय में रहते हैं। उसी तरह पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवों में चक्षुदर्शनावरणीयकर्म और अचक्षुदर्गनावरणीय कर्म दोनों ही उदय में रहते हैं । अंगोपांग नीम कर्म और इन्द्रियपर्याप्तिनामकर्म के उदय से द्रव्य इन्द्रियाँ . बनती हैं। भावेन्द्रियाँ मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपक्षम से बनती है, परन्तु एकेन्द्रिय आदि का व्यवहार जाति-नाम-कर्म के आधार पर होता है। कर्म की गति न्यारी


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