Book Title: Kaid me fasi hai Atma
Author(s): Suvidhimati Mata
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 15
________________ कैद में फंसी है आत्मा अकाल मरण नहीं होता। एक नारकी दूसरे नारकी के शरीर को छेद-भेद देते हैं, वह शरीर फिर वैसे ही जुड़ जाता है। जैसे - पारा गर्मी का समागम पा कर फैल जाता है कुछ देर बाद ठंडी हवा के झोंके से पुन: सिकुड़ जाता है। रबड़ खींचते जाओ वह लम्बा होता जाएगा। छोड़ देने पर फिर स्व-स्वरूपाकार बन जाता है, वैसे ही नारकी के शरीर के तिल-तिल बराबर टुकड़े करने पर भी वे पुनः जुड़ जाते हैं। इसीलिए प.पू. तीर्थभक्त शिरोमणि, बहुभाषाविद्, आचार्य 108 श्री महावीरकीर्ति जी महाराज कहा करते थे :- "जिन्दगी के कष्टों से डरने वालों! तुम यहाँ तो आत्महत्या कर लोगे किन्तु नरक में क्या करोगे? क्योंकि नरक में आत्महत्या का प्रसंग ही नहीं है।" देवगति के दुःख जिस दिव् धातु से देव शब्द बना है उस दिव् धातु का अर्थ है क्रीड़ा या कान्ति। अर्थात् जो दीप्तिमान हैं व निरन्तर यथेच्छ क्रीड़ा में निमग्न हैं, वे देव हैं। धवलाकार लिखते हैं कि - दिव्यंति जदो णिच्चं गुणेहि अट्टहि य दिव्य भावेहि। भासंत दिव्य काया तम्हा ते वणिया देवा। (धवला पुस्तक - 1, पृष्ठ-204) दिव्यस्वरूप अणिमादि 8 गुणों द्वारा निरन्तर जो क्रीड़ा करते हैं, जिन का शरीर प्रकाशमान है, जो दिव्य हैं, उन्हें देव कहते हैं।। वे देव 4 प्रकार के होते हैं - भवनवासी, व्यन्तरवासी,ज्योतिषवासी व विमानवासी। पहले के तीन देवों को भवनत्रिक संज्ञा से अभिसंज्ञित किया गया है, आगम में। भवननिक के दुःख -- तिलोय-पण्णत्तिकार यतिवृषभाचार्य लिखते हैं कि ज्ञान चरित्र के विषय में जिन्होंने अपने मन की शंकाओं को दूर नहीं किया है, मिथ्यात्वादि क्लिष्ट भावों से जो युक्त हैं, कामिनी के विरह से जो जर्जरित हुए हैं, जो कलहप्रिय हैं पापिष्ट हैं, अविनयी हैं, वैरभाव में जिन की रुचि है, जो तीव्र कषायी हैं, दुराचारी हैं, वे जीव भवनवासियों में जन्म लेते हैं। यही कारण ज्योतिषी देवों में जन्म लेने में है। समाधि मरण के विना मरने से, असत्यवादी, कामासक्त, कौतूहलप्रिय, आराध्य 13

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