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कैद में फैसी है आत्मा
लड़खड़ाने लगा। बुढ़ापे के वर्णन में चार पंक्तियाँ सनाऊँ -
आया बुढ़ापा हटी, चाल बनी अटपटी। दांतन की पंक्ति टूटी, इच्छारानी खाय रे॥ रोग ने शरीर घेरा, बालों ने वरन फेस। मौत ने डाला डेरा, आगे न सुझाय रे॥
(सुविधि गीत मालिका के काव्याधिकार से उद्धृत) पण्डित दौलतराम जी ने बुढ़ापे का वर्णन करते समय लिखा :
"अर्थमृतकसम बूढ़ापनो" बचा ही क्या है अब? मुँह से लार बह रही है, शरीर नानाविध रोगों का घर बन बैठा है अब। अंग सारा संकुचित हो जाता है, मांसराशि सूख कर नस-जाल झलक जाते हैं। मलमूत्र का बहाव बहने लगता है, कफ गिरने लगता है, उठना-बैठना कठिन हो जाता है। यद्यपि तृष्णा की अग्नि मन में धधकती रहती है। फिर भी कुछ कर न पाने से उस की कषाय भड़क जाती है। परिजन वर्ग उस से घृणा करने लगते हैं।
जिन बच्चों को हमने जन्म दिया था, जिन्हें पाल-पोस कर बड़ा किया था, जिन के लिए अनेकों कष्ट सहे थे, वे धमकी देने लगे। बात-बात पर डाँटने लगे। कहने लगे कि 'चुप रहो, बुढ़ापे के कारण तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है। सब के जलजले कटु वचन सुन-सुन कर परेशान हो जाते हैं। अन्त में मौत आ कर हम से आलिंगनबद्ध हो जाती है अर्थात् जीवन-लीला समाप्त हो जाती है। इस तरह जीवन के चन्द क्षण हम ने यूं ही खो दिये।
। चारों गतियाँ अस्थिर हैं, दुःखमय हैं। मोक्ष ही शाश्वत है, सुख-स्थान है। अतएव मोक्षसाधना ही हमारा ध्येय होना चाहिए।
आज मानव अत्यन्त दु:खी है, पीड़ित है। सर्वत्र आज अराजकता है, अशांति है, चारों ओर आज जहरीले विनाशकारी विचार हैं। अक्षुण्ण प्रयास है उस का शान्ति पाने का! सतत खोज कर रहा है - वह मानवता का प्यार, शान्ति का द्वार, समता का मनमोहक संगीत।
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