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कैद में फंसी है आत्मा
है, मनुष्य पर्याय को पुनः पाना - किन्तु कुछ दुर्भागी जीव गर्भावस्था में ही मृत्यु को प्रास होते हैं।
गर्भावस्था में यह जीव गर्भ थैली में उल्टा रहता है, माँ जो खाती है वह खा लेता है। गर्भ की थैली बहुत छोटी होती है, जिस में हाथ पैर सिकोड़ कर रहना पड़ता है। माँ के चलने फिरने के कारण या बोझादि उठाने के कारण होने वाले दर्द तो अनगिनत हैं। पंडित दौलतरामजी ने बड़े ही सरल शब्दों में कहा - "जननी उदर वस्यो नवमास, अंग संकुचतै पायो त्रास।" इस अकथनीय वेदमा को सहते-सहते कई बालक तो गर्भावस्था में ही मर जाते हैं।
भाग्योदय से यदि गर्भावस्था में बच्चा जीवन्त रह जाय तो गर्भावस्था छोड़ कर जन्म लेते समय अकथनीय दुःख होता है। जन्मते ही वह जीवन मरण के झूले में झूलता है। यदि उस से भी बच जाता है तो 8 वर्ष तक उस में सम्यक्त्व प्राप्ति की योग्यता का जन्म नहीं होता। इसलिए 8 वर्ष तक वह मिथ्यात्व के दोष से दूषित रहता है। बचपन खेलकूद में ही गुजर जाता है। यह जीव युवावस्था को प्राप्त हो कर काम व्याकुल हो भोगों में मस्त हो जाता है। सप्त व्यसनों में फंस जाता है। जवानी एक ढलान का मार्ग है, जिस पर फिसलने का अधिक डर है। आज भौतिक प्रसाधनों में युवक मार्गभ्रष्ट हो जाये, इस में क्या आश्चर्य ।
आज के युग के युवावर्ग के विषय में मैं स्वरचित कविता सुनाऊँ -- हे सखे! रामायण के राम ने कैकेयी के सम्मान में घर-द्वार छोड़ा वन की ओर मुख मोड़ा। आजकल के राम माँ बाप को देते हैं गम का इनाम उन का अखिल सम्मान कर देते नेस्तनाबूत कैसे हैं ये जिन्दा भूत?
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