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कैद में फँसी है आत्मा
वे निरन्तर सुखोपभोग में मग्न रहते हैं, किसी बात की कमी नहीं होती, किन्तु मन की इच्छा कभी तृप्त नहीं होती, वे सदा अतृप्त वासनावान रह जाते हैं। उन की अतृप्तता उन्हें इतना क्लेशित करती है कि मरते समय उन्हें कहना पड़ता है कि अभी इतना शीघ्र जाना पड़ेगा? अतएव मर कर दुर्गति का ही पात्र बनना पड़ता है। मनुष्य गति तथा उस के दुःख
अनेक घोर कष्टों के पश्चात् जीवन में कठिन मोड़ से गुजरी अनन्त साधना के पश्चात् कभी यह जीव मनुष्य पर्याय प्राप्त कर लेता है।
मनुष्य व देव पर्याय में तुलना करें तो ज्ञात होगा कि देव पर्याय में प्राप्त सांसारिक सुखों का एक अंश भी मानव पर्याय में नहीं मिल पाता। देवी का वैक्रियक शरीर होता है, जो खून, पीव, हड्डी, मांस आदि से रहित होता है। निकृष्ट से निकृष्ट देव को 32 देवांगणाएं होती है, अणिमा महिमादि 8 गुण उन में पाए जाते हैं। लम्बी आयुवान व श्रेष्ठ कान्तिवान होते हैं देव! चिन्ता विरहित देव निरन्तर क्रीड़ाओं में लीन रहते हैं। खाने की भी चिन्ता नहीं, नियोग के समय पर स्वयमेव अमृत ही गले में झर जाता है। इतना सब कुछ होने के उपरान्त भी समस्त तत्त्वाधिपतियों ने मनुष्य पर्याय को ही श्रेष्ठ क्यों बताया ?
आर्षवाक्य है कि देव व नारकी पहले चार गुणस्थान ही प्राप्त कर सकता है। तिच अधिकतर पंचम गुणस्थान की साधना कर सकता है, किन्तु गुणस्थान की 14 सीढ़ियाँ पार कर के मोक्ष प्राप्त करने की साधना मनुष्य ही कर सकता है। तीर्थंकरत्व, चक्रवर्तीत्व, नारायणत्व, बलभद्रत्व आदि संसार की उत्तम उपाधियाँ केवल मानव को ही प्राप्त हैं। अन्य पर्यायवासियों को यह सम्मान नहीं मिलता।
प्रथमानुयोग के परिशीलन से यह ज्ञात होता है कि मानवों की सेवा देवलोग करते हैं। चक्रवर्ती के एक-एक रत्न की सेवा हेतु 1000/1000 देव कटिबद्ध रहते हैं। तीर्थंकर के पाँच कल्याणक देवों ने मनाए ।
मनुष्य कौन हैं? इस प्रश्न का उत्तर देते समय धवलाकार कहते हैं मणंति जदो णिच्चं मणेण णिउणा मणक्कडा जम्हा । मणु उब्भवा य स तम्हा ते माणुसा भणिया ||
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( धवला 1 पृ. 204 )
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