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कैद में फंसी है आत्मा
परमेष्ठियों पर दोषारोपण करने से, मायाचारी व अविनयी जीव व्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं।
वैसे सामान्य से इन तीनों निकायों में जन्म लेने का कारण है, अकाम निर्जरा। अकाम निर्जरा का अर्थ है, आप का उत्साह तो न हो, इच्छा तो न हो किन्तु परिषह आ जाय, भूख-प्यास की बाधा से आप बाधित हो जाये तो मजबूरी को देख कर उन परिषहों को शान्त भावों से सहते हुए जो कर्म निर्जरा होती है, उसे अकाम निर्जरा कहते हैं।
भवनत्रिक देव हीन देवों की श्रेणी में आते हैं। ये देव इच्छाओं की ज्वाला से दग्धायमान होते हैं। जहाँ-जहाँ चाह है, वहाँ-वहाँ मात्र दुःख है। अभिलाषा विरहित परिणामों में ही सुख है। वे देव अन्य देवों की सम्पत्ति का अवलोकन कर के दखित होते हैं व सोचते हैं कि काश! हमारे पास भी इतनी संपत्ति होती। उन का कुण्ठ!-भाव उन्हें प्राप्त सुख का उपभोग नहीं करने देता।
___ इस चंचल चपल पापी मन में एक कमजोरी पाई जाती है कि वह कभी अन्तर्मुख नहीं बनने देगा। जब भी मन की प्रवृत्ति होगी तो बहिर्मुखाकार। दूसरों को ही ताकता रहता है, यह मन। यदि यह मन आपत्परिस्थितिवान् व्यक्तियों की ओर दृष्टिपात करे तो सुख का बिन्दु पा सकता है। सन्तोष होगा उस को अपनी स्थिति पर, किन्तु ऐसा नहीं होता। मन साधनसम्पत्र जीवों को देखने में इतना समय गंवा देता है, कि खुद के भाग्य का सुख भी भोग नहीं पाता।
एक महोदय ने अतिशय कटु सत्य लिखा है। वह लिखता है कि जीव स्वयं सुखी होना नहीं चाहता है, वह चाहता है कि मैं उस से सुखी होऊँ। जीव यदि मात्र सुखी होना चाहे तो संसार का प्रत्येक प्राणी सुखी हो जाएगा, सुख प्रत्येक प्राणी के अन्तर्मन में आलोड़न-विलोड़न करेगा। तुलना के अनुसार सुख खोजेगा तो एक भी जीव सुखी नहीं हो सकता।
वैसे देव पर्याय में सांसारिक इन्द्रिय विषयक सुखोपभोग प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, किन्तु उन के हृदयगर्भ में ईर्ष्या की अग्नि सदा जलती रहती है - सम्पदा पाने के लिए मन अकुलाता रहता है। जब मरणकाल आता है, तो गले की माला मुरझा जाती है, वस्त्राभूषण कान्तिहीन हो जाते हैं, चेहरा म्लान हो जाता है। इन सारे दृश्यों से
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