________________
----
www.JP
आश्चर्य को प्राप्त हुआ वह देव अवधिज्ञान के द्वारा जानता है कि अब मेरे अति सन्निकट में मरण आया है, छह माह की आयु शेष रही है, तब वह नाना प्रकार से विलाप करता है, दुर्ध्यान करता है।
कैद में फँसी है आत्मा
जब उस देव को यह ज्ञात होता है कि यहाँ से मर कर मल, खून आदि अनेक अपवित्र व दुर्गन्धित स्थान रूप गर्भ में मुझे 9 माह रहना पड़ेगा तो वह विलाप करने लगता है। मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? कौन मेरा शरण होगा? इस गर्भवास से मुझे कौन बचायेगा ? प्रभो ! यदि यहाँ से मेरा मरण होता है तो भले ही होवे किन्तु मुझे नरकतुल्य गर्भ में निवास न करना पड़े, भले ही मैं एकेन्द्रिय बन जाऊँ ।
ऐसे विचार उस के मन में हिलोरें लेने लगते हैं, उसी कारण वह एकेन्द्रिय पर्याय का बन्ध कर लेता है।
यह नियम है कि देव मर कर देव नहीं होता, देव मर कर नारकी नहीं होता, नारकी मर कर नारकी नहीं होता, नारकी मर कर देव नहीं होता। देव मर कर अग्नि कायिक में, सूक्ष्म एकेन्द्रिय में, भोगभूमि में, असंज्ञी पंचेन्द्रिय में अथवा लब्ध्यपर्यातक में जन्म नहीं लेता | बारहवें स्वर्ग के ऊपर के देव चाहे वे भव्य हों या अभव्य, चाहे सम्यग्दृष्टि हों या मिथ्यादृष्टि, मनुष्य पर्याय ही पाते हैं। अन्य देव अपने-अपने उपार्जित कर्मानुसार मनुष्य, संज्ञी पंचेन्द्रिय, पृथ्वीकायिक, जलकायिक तथा प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याय को प्राप्त होते हैं।
विमानवासी देव एवं उन के दुःख आयतन की सेवा, सद्धर्मश्रवण, तप की भावना, कषायनिग्रह, सम्यक्त्व, व्रतपालन, जिन पूजा आदि अनेक कारणों से यह जीव वैमानिक बनता है।
वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं कल्पोपपत्र व कल्पातीत । जहाँ इन्द्र सामानीकादिकों की कल्पना होती है, उस स्थान को कल्प कहते हैं। उस कल्प में जो उत्पन्न होता है, वह कल्पोपपन्न देव है। जहाँ कल्प की व्यवस्था नहीं है, जहाँ के देव अहमिन्द्र शब्द से चिह्नांकित हैं, जहाँ छोटे-बड़े का भेद नहीं है, वह कल्पातीत है।
-
वैमानिक देव यद्यपि अनेक ऋद्धिसंपन्न, संपत्तियुक्त वैभव से परिपूर्ण तथा विशेष ज्ञानयुक्त होते हैं, किन्तु मन में धधकती ईर्ष्या की ज्वाला उन्हें सुखी नहीं होने देती ।
15