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सेवा पेशा न बने
आपने सेवा का व्रत लिया है। सेवा का व्रत बहुत कठिन होता है। राजर्षि भर्तृहरि ने तो यहां तक कह दिया-सेवाधर्मः परम गहनो योगिनामप्यगम्यः। यानी सेवा धर्म परम गहन है। योगीजनों के लिए भी वह अगम्य है। भले सेवा धर्म कठिन है, उसे समझना सहज नहीं है, पर आपने जब सेवा का व्रत लिया है, तब आपको तो उसे समझना ही होगा, अन्यथा उसे सम्यक रूप से कैसे निभाएंगे? निभाने का प्रश्न फिर भी आगे का है, उससे पहले तो प्रश्न यह है कि उसे व्रत मानते भी हैं या नहीं। मुझे ऐसा लग रहा है कि आज सेवा व्रत नहीं, अपितु पेशा बन रही है, आजीविका का साधन बन रही है। किसी को गलतफहमी न हो, इसलिए इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूं कि मैं पारिश्रमिक लेने के खिलाफ नहीं हूं। वह तो उसके साथ सहज रूप से जुड़ी हुई बात है, तथापि इतना स्पष्ट है कि वह गौण बात है। मुख्य बात सेवा को व्रत के रूप में स्वीकार करने की है, उसे अपना कर्तव्य मानने की है। जब तक सेवा को अपना कर्तव्य नहीं समझेंगे, तब तक आप उसके साथ न्याय नहीं कर सकेंगे। इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि आप मुख्य बात पर ध्यान केंद्रित करें, आजीविका तो उससे सहज रूप से प्राप्त होती ही है। उसे मुख्य न बनाएं। कौन होता है रक्षक
दूसरी बात-आप पर रक्षा की जिम्मेदारी है। रक्षा का दायित्व क्षत्रियों का है। जैन-परंपरा के अनुसार भगवान ऋषभनाथ के शासनकाल में सबसे पहले क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में तीन वर्णों की व्यवस्था हुई। यह व्यवस्था कार्य-दायित्व के आधार पर थी। इसमें छोटे-बड़े, ऊंच-नीच की कोई भावना नहीं थी। जिन्होंने रक्षा का दायित्व संभाला, वे क्षत्रिय कहलाए। क्षत्रात् त्रायते इति क्षत्रियः। इसी क्रम में वैश्यों एवं शूद्रों का भी अपना-अपना दायित्व था।
आज यह व्यवस्था बदल गई है। रक्षा का दायित्व आप पर है, भले आप क्षत्रिय नहीं कहलाते। कौन हो सकता है रक्षक ? क्या इस प्रश्न का उत्तर आपमें से कोई दे सकता है? मैं ही दे देता हूं। रक्षक वही हो सकता है, जो स्वयं की रक्षा करने में सक्षम हो। जो स्वयं की रक्षा करने में ही सक्षम न हो, अपने-आपमें ही सुरक्षित न हो, वह दूसरों
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ज्योति जले : मुक्ति मिले
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