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धन का संग्रह यह प्रकट करता है कि कहीं शोषण हुआ है। शोषण अपनेआपमें हिंसा है। इस दृष्टि से अपरिग्रह को अहिंसा से अलग करके परिभाषित नहीं किया जा सकता।
मैं यह यथार्थ स्वीकार करता हूं कि गृहस्थ पूर्ण अहिंसक नहीं बन सकता, पर एक सीमा तक तो वह हिंसा से बच ही सकता है। अनावश्यक और संकल्पजा हिंसा से तो उसे सलक्ष्य बचना ही चाहिए, किंतु यह तभी संभव है, जब वह अपना जीवन संयमोन्मुख बनाए। अणुव्रत-आंदोलन जन-जीवन को संयम के सांचे में ढालने का प्रयत्न है। आप भी इसकी आचार-संहिता स्वीकार करें। इससे आपका जीवन संयम से भावित होगा। उसके फलस्वरूप अहिंसा आपके जीवन-व्यवहार में मूर्त बनेगी।
दिगंबर जैन मंदिर बेलगछिया, कलकत्ता १७ मई १९५९
अहिंसा की व्यापकता
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