Book Title: Jyoti Jale Mukti Mile
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 395
________________ मुक्त-'अकषाय' को वीतराग कहते हैं। श्रावक-हिंसा, असत्य आदि सावद्य-पापकारी प्रवृत्तियों का आंशिक त्याग करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव। श्रावक पांचवें गुणस्थान में अवस्थित होता है। श्रावक को देशव्रती या व्रताव्रती भी कहते हैं। देखें-गुणस्थान, देखें-सम्यक्त्वी । संकल्पजा हिंसा-मानसिक संकल्पपूर्वक प्राणी की घात करना संकल्पजा हिंसा है। अहिंसा अणुव्रत को स्वीकार करनेवाला इस प्रकार की : हिंसा से उपरत रहता है। आरंभजा और विरोधजा हिंसा के प्रकारों से यह भिन्न है। गृहस्थ जीवन चलाने के लिए की जानेवाली कृषि, व्यापार आदि प्रवृत्तियां आरंभ है। इनमें होनेवाली हिंसा आरंभजा हिंसा है। शत्रु द्वारा आक्रमण करने पर प्रतिरक्षार्थ युद्ध आदि में होनेवाली हिंसा विरोधजा हिंसा है। श्रावक आरंभजा एवं विरोधजा हिंसा से नहीं बच सकता, पर संकल्पजा हिंसा का अवश्यमेव त्याग करे। संवर-कर्म-आकर्षण में हेतुभूत आत्मपरिणाम को आश्रव कहते हैं। आश्रवं के निरोध को संवर कहा जाता है। उसके पांच भेद हैं-१. सम्यक्त्व २. व्रत (विरति) ३. अप्रमाद ४. अकषाय ५. अयोग। विस्तार में उसके बीस भेद भी बताएं गए हैं। सम्यक्त्व-देखें-सम्यक्त्वी। सम्यक्त्वी-तत्त्व के बारे में सम्यक/यथार्थ श्रद्धा-जो तत्त्व जैसा है, उसे उसी रूप में समझना सम्यक्त्व है। ___ सम्यक्त्व की प्राप्ति दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियों (मिथ्यात्व-मोहनीय, मिश्र-मोहनीय एवं सम्यक्त्व-मोहनीय) तथा चारित्र-मोहनीय की चार प्रकृतियों (अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ) के क्षय, क्षयोपशम या उपशम से होती है। दर्शनमोहनीय एवं चारित्र-मोहनीय मोहकर्म के ही दो भेद हैं। जो प्राणी सम्यक्त्व से संपन्न होता है, जिसकी तत्त्व के प्रति श्रद्धा सम्यक/यथार्थ है, वह सम्यक्त्वी या सम्यग्दृष्टि है। देखें-मोहकर्म। ___ यथार्थ तत्त्वश्रद्धा, सम्यक देव, गुरु व धर्म की आराधना, तीव्र कषायों से विरति-ये सारी बातें सम्यक्त्वी के लिए अनिवार्य हैं। शम, संवेग आदि पांच लक्षण, निःशंकित, निःकांक्षित आदि पारिभाषिक कोश .३७१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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